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________________ धर्मग्रन्य १४३ प्रेरक कथाएँ, जो पशु-पक्षियों को पात्र बनाकर रची गयी थीं, आज भी सार्वजनीन प्रसिद्धि से गौरवान्वित हैं। नेवले-ब्राह्मणी की कथा तमिल महाकाव्य 'शिलप्पधिकारम्' में भी प्रवेश पा गयी, और तत्कालीन कई ग्रन्थों में भी उद्धरण, दृष्टान्त आदि के रूप में कई नैतिक कथाएँ पायी जाती हैं। अठारह 'कीळ कणक्कु' ग्रन्थों में तो मुख्यतया पंचतंत्र, जातक, जैन महापुराण आदि की बोधक नीतिकथाएँ उपलब्ध होती हैं। पहले ही कहा जा चुका है कि ऐसी लोककथाएँ सुदूर देश-विदेश तक फैलकर, वहाँ के साहित्य द्वारा जन-मन में घर कर चुकी हैं। प्राचीनतम लक्षण ग्रन्थ 'तोलकाप्पियम्' में भी पंचतंत्र की कई रोचक कथाएं वर्णित हैं। तमिल महाकाव्य 'जीवक चिन्तामणि' के रचयिता जैन कवि तिस्त्तक्क देवर के नाम से 'नरिविरुत्तम्' (गीदड़ का वृत्तान्त ) नामक एक छोटा पद्य ग्रन्थ पाया जाता है। इसमें पंचतंत्र के 'मित्रलाभ' की कथा सुन्दर पद्यों में वर्णित है। शैव संत साहित्य 'तेवारम्' में इस बात का उल्लेख है कि जैनाचार्यों ने धार्मिक और नैतिक तत्त्वों को जनसाधारण में प्रसारित करने के उद्देश्य से मुख्यतया बालोपयोगी साहित्य के रूप में, 'एलि विरुत्तम्' (चूहे की कथा ), 'नरि विरुत्तम्', किळि विरुत्तम् ( तोते की कथा ) आदि छोटे-छोटे पद्य-ग्रन्थों की रचना की। इनमें निर्दिष्ट 'नरि विरुत्तम्' गीदड़ वृत्तान्त' से भिन्न है। 'वृत्तम्' का अर्थ छन्द भी है। उसके अनुसार प्राचीन जैनाचार्यों के 'एलि विरुत्तम्' आदि ग्रन्थ 'कलित्तुरै' नामक तमिल छन्द में रचित थे। तमिल में मुख्यतया कलित्तुरै को ही, जिसका अपरनाम 'कट्टळे कलित्तुरै' है, 'विरुत्तम्' ( वृत्त ) कहते हैं। अतः वे ग्रन्थ 'विरुत्तम्' छन्द में रचे जाने के कारण भी 'एलि विरुत्तम्' आदि नाम पा गये। जैन कवि तिरुत्तक्क देवर रचित 'नरि विरुत्तम्' में तो 'विरुत्तम्' छन्द नहीं है। अत: उसका अर्थ 'गीदड़ का वृत्त ( वृत्तान्त )' लेना संगत होगा। "किळि विरुत्तम्' सम्भवतया संस्कृत की 'शुक सप्तशती' से सम्बन्धित हो सकता है । जैनाचार्यों ने कई ऐसी लोककथाओं का प्रान्तीय भाषाओं से संस्कृत में अनुवाद किया था। इसकी चर्चा एक श्वेताम्बर जैन विद्वान् ने अपने संस्कृत ग्रन्थ में की है। अतः यह भी सम्भव है कि उक्त 'किळिविरुत्तम्' आदि नीति-कथाएँ तमिल से ही 'शुक सप्तशती' आदि के रूप में संस्कृत में आयी होंगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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