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तमिल जैन साहित्य का इतिहास
मत्तम् मयिलन्न शायलाय मनिय शीर दत्तन्' चकोटन् किरित्तिरमन्-पुत्तिरिपुत्रन्' पवित्तनोडु" पॉयिलुपकृतन्
इत्तिरत्त एंविनार पेर्. पिता के देहावसान के उपरान्त उनकी सम्पत्ति के ये बारह पुत्र क्रमशः उत्तराधिकारी हो सकते हैं और इनमें औरस पुत्र को छोड़कर अन्य प्रत्येक पुत्र अपने से पूर्व-निर्दिष्ट पुत्र के न होने की स्थिति में ही पैतृक सम्पत्ति का भागीदार हो सकता है।
इन अठारह लघुग्रन्थों की उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं-शब्दलाघव, संगत उपमा, रोचक तथा प्रभावपूर्ण दृष्टान्तरूप उपकथाएँ, सरल सरस भाषा और अभिव्यंजना। तमिल की लोकप्रिय तथा स्वनामधन्या कवयित्री ओवैयार तथा अन्य आचार्यों द्वारा रचित एवं सर्वाधिक समादृत नन्नॅरि, नीतिनॅरिविळक्कम्, नल् वळि; वाक्कुण्डाम्, नीतिनूल, अरनॅरिसारम् आदि नीतिग्रंथों का प्रेरणास्रोत 'पतिनॅण् कीळ कणक्कु संग्रह ही है।
जैनाचार्यों ने बौद्ध भिक्षुओं की तरह साधारण जनता की सेवा विद्याभ्यास, स्नेहपूर्ण सहयोग तथा हार्दिक सहानुभूति द्वारा की और उस युग के अधिकांश जैनाचार्य लब्धप्रतिष्ठ वैद्य भी थे। अतः सेवा-शुश्रूषा के साथ अच्छी औषधियों द्वारा जनता की चिकित्सा कर लोकप्रियता एवं श्रद्धा प्राप्त करने का सुयोग जैनियों को प्राप्त था। इसी कारण उन्होंने वैद्य के रूप में जनता से प्राप्त श्रद्धा-आस्था की कृतज्ञतास्वरूप अपने ग्रंथों के नामों में भी 'तिरिकटुकम्' (तीन औषध-वस्तुओं से बनी दवा चूर्ण), एलादि (इलायचीआदि छह वस्तुओं से तैयार किया गया लेद्य औषध ), 'चिरु पंच मूलम्' (पांच कंदों से बनाया गया लेह्य औषध ) आदि का प्रयोग किया है। धार्मिक और नैतिक ग्घु कथाएँ
जानवरों को मुख्य पात्र बनाकर, उनके आचारण या आख्यान द्वारा धार्मिक और नैतिक तत्त्वों का रोचक ढंग से प्रतिपादन करने की परिपाटी पुरातन काल से चली आयी है । उपनिषदों और इतिहास-पुराणों में भी ऐसी बोधक कथाएँ पायी जाती हैं। पंचतंत्र, हितोपदेश; बुद्धजातक और ईसप की १. दत्तक ।
२. सगोत्र । ३. कृत्रिम । 7. पुत्री का पुत्र-दौहित्र । ५. पौत्र । ६. उपकृतपुत्र ।
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