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________________ ૧૪૦ तमिल जैन साहित्य का इतिहास जो 'पतिनॅ कीळ, कणक्कु' के समय में प्रधान वर्ण्य विषय थे । इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जीवनोपयोगी धार्मिक तत्त्व अपने विपक्षी या विरोधी सम्प्रदाय द्वारा प्रचारित होने पर भी शैव, वैष्णव आदि कवियों ने उनका -समादर किया और यथासम्भव उनको जनमन में बिठाने का प्रयास भी किया । 'पतिनेंण कीळ कणक्कु' को अन्य विशेषताएँ 20 इन ग्रंथों द्वारा तत्कालीन सामाजिक दशा का पता चलता है । 'चिरु पंच मूलम्' के एक पद्य का आशय यह है कि चमड़े के नकली बछड़े को पास में खड़ाकर दूध दुहते हैं, ऐसे निकृष्ट दूध को, जिसकी पवित्र पेय पदार्थों में मुख्य गणना है, शिष्ट लोग छूना भी पाप समझेंगे । भ्रूणहत्या, गर्भपात, शिशुमरण, अकालमृत्यु आदि उस समय की सहज घटनाएँ थीं ।'' इनिय नापेदु' में 'शिशुओं को स्वस्थ रखना परम हित है' का उपदेश है । 'चिरु पंच मूलम्' में भ्रूणहत्या, गर्भपात आदि को घोर पाप कहकर, कुमारी कन्याओं की रक्षा और देखरेख बड़ी सावधानी से करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है । 'अत्युत्कटैः पुण्यपापैः इहैव फलमश्नुते' पुण्य या पाप की अति हो जाने पर, उसका फल इसी जन्म में मिल जाता है - इस तत्त्व का समर्थन इन ग्रंथों में अधिकतर हुआ है । दान को परम धर्म मानने की जो परम्परा पुराने समय से चली आयी है, उसमें परिस्थिति के अनुकूल कुछ सुधार भी इन ग्रंथकर्ताओं ने किये और उनको भी धर्म का चोला पहनाकर जनता के समक्ष पेश किया । अपना सबकुछ निछावर करके भी अपनी दानशीलता का परिपालन करनेवाले " पारिवळ्ळल्, कुमणन्, पेकन्, कर्ण, हरिश्चन्द्र आदि महादानियों की गुणगाथा गानेवाली साहित्य परम्परा में एक नूतन प्रक्षिप्त रीति का समावेश कर दिया जैनाचार्यों ने । 'इन्ना नादु' ( अहित चालीसी ) की एक पंक्ति देखिए, 'इन्ना पॉरुळिल्लार वण्मै पुरिवु' ( अपने पास पर्याप्त धन न रखनेवालों के लिए दानी बनना अहितकर है ) ।" इसी मत का पृष्ठपोषण 'इनिय नार्पदु' ( हितचालीसी में इस प्रकार हुआ है, 'वरुवायरिन्दु वळू गल् इनिदे' ( आमदनी के अनुसार ही दानपुण्य करना हितकर है ) । इस विषय में 'तिरिकडुकम्' का उपदेश देखिये, 'वरुवामुळे काल् वऴगि वाळू दल (आमदनी का एक चौथाई हिस्सा दान में बांटना सफल जीवनयापन करनेवाले का कर्तव्य है ।' ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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