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धर्मग्रन्थ
१३९ औषध और इसी प्रकार यह ग्रंथ भी जनजीवन को पवित्र एवं स्वस्थ बनाने वाले छह उत्तम धर्मों का वर्णन करता है । छह उत्तम धर्मों का सम्मिलित निर्देश होने से यह भी 'एलादि' औषधि के समान तन-मन को स्वस्थ तथा पवित्र बनाता है।
कणिमेधैयार ने पूर्वसंचित पुण्य की अवश्यंभाविता पर जोर दिया है। इस ग्रन्थ में उन्होंने मुक्ति की महत्ता और उसे प्राप्त करने के उपायों का सुंदर वर्णन किया है। विद्या और शिक्षा की महत्ता को ही इन्होंने अधिक उपादेय समझा । 'विद्याधनं सर्वधनात् प्रधानम्', 'विद्याभूषणमेव भूषणम्' आदि भाव इनके पद्यों में अधिक पाये जाते हैं।
इन्हीं कणिमेधयार ने नायक-नायिका भाव और स्वस्थ गार्हस्थ्य जीवन पर 'तिणमाले नूट्रैम्पदु' नामक डेढ़-सौ पद्योंवाले दूसरे ग्रंथ की रचना की। इसी प्रकार के ग्रन्थों में कार नार्पदु, ऐंतिणे ऐंपदु, ऐंतिण एळ पदु, तिण मोलि ऐंपदु और कैप्निलै उल्लेखनीय हैं, जो जनेतर कवियों द्वारा रचित होने पर भी समुच्चय के अठारह लघु ग्रंथों के अन्तर्गत हैं। इनके द्वारा तत्कालीन स्वस्थ पारिवारिक जीवन का पता चलता है और इनमें संस्कृत के तत्सम एवं तद्भव शब्द अधिक ही पाये जाते हैं । जैनेतर होने पर भी जैनतत्त्व-प्रभावित ग्रन्थ _ 'इन्ना नार्पदु' ( अहित चालीसी ), 'इनिय नार्पदु' (हित चालीसी ), 'तिरि कडुकम्', 'नान् मणि घटिकै', 'आचार कोवै', 'मुदु मॉळि कांजि' आदि ग्रंथ जो उक्त समुच्चय के अंतर्गत हैं, जैनेतर कवियों द्वारा विरचित होने पर भी, प्रधानतया जैनधर्म तत्त्वों का समर्थन करते हैं । ___ 'ऊनत् तिन्ह ऊनप् पॅरुत्तल् मुन् इना' मांस-भक्षण कर मांस को (अपने शरीर को) बढ़ाना पाप या अहित है । 'इन्ना नार्पदु' का यही उपदेश 'इनिय नर्पिदु' ग्रंथ में भी है। उसमें कहा है, 'ऊनत् तिन्ह ऊनप् पॅरुक्कामै मुन् इनिदे' मांस खाकर मांस ( शरीर ) को न बढ़ाना ही अच्छा या हितकारी है।
इसी प्रकार 'तिरुकडुकम्' में भी इस उपदेश का दूसरा रूप दिया गया है कि 'जो रोज मांसभक्षण करता हुआ, दूसरे जीव से स्नेह करने का दम्भ भरता हो, उसके उस ढोंगी स्नेह से क्या लाभ है ?' 'नान् मणि घटिकै' में जीवहत्या, मामिषभोजन आदि का प्रभावपूर्ण ढंग से खंडन है। इन सब घामिक तत्त्वों के उपदेश संघकालीन ग्रंथ 'पट्टिनप्पालै' में भी गौण रूप में हैं,
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