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तमिल जैन साहित्य का इतिहास
चिरु पंच मूलम् और एलादि
( समुच्चय के अन्तर्गत दो रचनाएँ ) 'चिरुपंचमूलम्' सो पद्यों का एक लघु ग्रंथ है । इसके रचयिता हैं माक्कायन् माणाक्कनार' 'माक्कारि आशान्' । इन्होंने ग्रन्थारम्भ में, अर्हत् भगवान् की स्तुति में लिखा है- मुळ दुणन्र्दु मुन्नाळित्तु मूवादान्' (सम्पूर्ण ज्ञानवाले तथा आदि-अन्त रहित भगवान्)। तमिल की स्वनामधन्य कवयित्री औवैयार के नीतिपद्यों को 'चिरुपंचमूलम्' से प्रेरणा मिली। इस ग्रन्थ में गुरु, शिष्य, सिद्ध पुरुष और कवि के बारे में लाक्षणिक एवं प्रशंसात्मक पद्य हैं। 'आतर् और 'भूतर' ये दोनों शब्द मूर्खवाचक अर्थ में इनके समय में प्रयुक्त किये गये थे, जिसका प्रमाण इस लघु ग्रन्थ के पद्यों में ही मिलता है। अतः 'तिरिकडुकम्' के रचयिता 'नल्लातनार' ('आतर' का दूसरा रूप ही 'आतनार' के बाद ही, अर्थात् तीसरी या उसके परवर्ती शती में ही, इस 'चिरु पंच मूलम्' की रचना हुई होगी। 'नल्लातनार' उत्तम गुरु या अर्हत् भक्त के शिष्ट अर्थ में पहले व्यवहृत हुआ था। बाद के शैवाचार्यों ने अर्थ वैपरीत्य का प्रचार व्यंग्यप्रयोग द्वारा किया होगा; जैसे कि 'बुद्ध' शब्द का 'बुधू' (मूर्ख) रूप प्रचलित हुआ।
इस ग्रन्थ में जीव हिंसा को घोर पाप के रूप में प्रभोवपूर्ण ढंग से दर्शाया गया है और साथ ही, जीव-रक्षा की महत्ता भी अच्छी तरह दर्शायी है। इस ग्रन्यकर्ता का मत है कि जो धर्माचरण से अविचलित रह चुके हैं, वे ही राजा के रूप में अवतरित होते हैं ।
'चिरु पंच मूलम्' का व्यंजक एवं व्यवहार-प्रचलित अर्थ है, पाँच कन्दों से बनी औषध (लेह्य) । इसी प्रकार, इस ग्रन्थ में पांच उत्तम धर्मतत्त्वों को व्यक्त करनेवाले जैनधर्म का तथ्यपूर्ण वर्णन है । एलादि
यह भी जैनधर्मविषयक लघु ग्रन्थ है । इसके रचयिता 'कणिमेधावियार' हैं । इनको 'कणिमेधैयार' भी कहते हैं। ये पूर्वोक्त 'चिरु पंच मूलम्' के रचयिता माक्कारि आशान् के सहपाठी थे। 'एलादि' का अर्थ है 'इलायची आदि'; तात्पर्य यह है कि इलायची आदि छह वस्तुओं को मिलाकर बनायी गयी
१. इसका अर्थ है, आचार्य माक्कामन् के शिष्य ।
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