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धर्मग्रन्थ
है कि सातवीं शती के पेपिडुकु मुत्तरैयर का ही नाम पेरुमुतरैयर होना चाहिए। सातवीं शती के मध्यवर्तीकाल में पल्लवनरेश परमेश्वर पल्लवन् की उपाधि 'पेरुपिडुकु' थी । अतः यह सिद्ध होता है कि सामन्त पेरुमुत्तरैयर परमेश्वर पल्लवन् का समर्थक राजा था और 'नालडियार' ग्रन्थ का सङ्कलन सातवीं शती में ही हुआ था।
यद्यपि इस ग्रंथ का सङ्कलन सातवीं शती में हुआ था, फिर भी रचनाकाल उससे पूर्व था । उसके कई पद्य 'आडूउ मुन्निल' (पुरुष सम्बोधक) और 'मकडूउ मुनिल' (स्त्री सम्बोधक) की प्राचीन पद्धति में रचे गये हैं। 'कानकनाडन्' (काननदेशीय), 'मलनाडन्' (पर्वत प्रदेशीय), 'कडकरै चेर्पन्' (समुद्रतट देशीय) आदि नरेशों के नाम उन पद्यों में उपलब्ध हैं, किन्तु पता नहीं ये राजा किस काल और राज्य के थे । भाषा और शैली की दृष्टि से नालडियार' के पद्य 'तिरुक्कुरळ्' के बाद रचे हुए प्रतीत होते हैं।
पळमाळि नानूरु
'पळमॉळि नानूरु' (चार सो धार्मिक लोकोक्तियों का पद्यात्मक ग्रन्थ) भी जैनधर्म का प्रतिनिधित्व करनेवाली कृति है । इसके रचयिता थे जैनाचार्य मुन्तुरै अरैयनार । मुन्तुरै पाण्ड्य देशवोएक स्थान का नाम है। उस स्थान के निवासी होने के कारण उन्होंने अपने नाम के साथ 'मुन्तुरै' को जोड़ लिया होगा।
इस 'पळमॉळि नानूरु' ग्रंथ का मंगलाचरण अर्हत् भगवान् की स्तुति के रूप में है। इसमें कई सुविख्यात संघकालीन महाराजाओं की प्रशंसा की गयी है। अतः यह ग्रंथ निश्चय ही संघकाल के बाद रचित है। इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि तमिलनाडु में प्रचलित लोकोक्तियों को अन्तिम चरण के रूप में रखकर, पौराणिक कथाओं एवं धार्मिक तत्त्वों के द्वारा लोकोक्ति की निधि की महत्ता स्पष्ट की गई है। वसुधैव कुटुम्बकम्, सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय-आदि उदात्त भावनाएं आचार्य मुन्तुरै अरैयनार के प्रत्येक पद्य में झलकती हैं । इस ग्रन्थ की शैली से प्रकट होता है कि यह रचना 'नालडियार' संग्रह के पद्यों से भी पूर्ववर्ती है। 'नालडियार' के पद्यों की अपेक्षा इस ग्रंथ की शैली सशक्त एवं गम्भीर प्रतीत होती है।
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