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धर्मग्रन्थ
शैवसंत साहित्य 'तेवारम्' के समय में ( ई० तीसरी शती से सातवीं तक) 'आतन्' शब्द अपढ़, मूर्ख और अंधे के अर्थ में व्यवहृत होता था। पर उक्त समुच्चय के एक ग्रन्थ 'तिरुकडुकम्' के रचयिता का नाम 'नल्लातनार । ( उत्तम आतन् ) है। अतः यह स्पष्ट है कि 'तेवारम्' के समय के पूर्व ही उक्त ग्रन्थ का प्रणयन एवं प्रसार हो गया था। 'आतन्' शब्द के दूसरे प्राचीन अर्थ हैं-अर्हत् भगवान्, उनका भक्त, प्राण और गुरु । अतः इन अर्थों में से किसी एक उपयुक्त अर्थ के आधार पर ही, वह 'नल्लातनार' ( उत्तम गुरु या प्राण अथवा उत्तम अर्हत्-भक्त ) नाम रख लिया गया होगा। इस लिए उस 'नल्लातनार' के 'तिरिकडुकम्' ग्रन्थ को भी तीसरी शती के पूर्व का मानना उचित होगा । उस नाम से ही प्रतीत होता है कि 'नल्लातनार' एक जैनाचार्य थे। इसके अतिरिक्त छंद, वर्णनशैली, भाषा के गठन आदि से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि 'मुदु मॉळि कांचि', 'कळबळि नार्पदु' और 'तिरुक्कुरळ' इन तीनों ग्रन्थों को छोड़कर अन्य सब ग्रन्थ संघकाल के परवर्ती ही होने चाहिए।
इनमें अधिकांश ग्रन्थ जिनके रचयिता जैनाचार्य थे, संघकालीन माने जाते हैं। इसकी पुष्टि एक प्राचीन पद्य से होती है। इसका तात्पर्य संभवतः आचार्य वज्रनंदी द्वारा स्थापित एवं संचालित द्राविड संघ हो सकता है। यह संघ ई० ४७० में मदुरा ( मदुरै) नगरी में जैनाचार्यों के तत्त्वावधान में प्रतिष्ठापित होकर अपने सम्प्रदाय के साथ, तमिल भाषा-साहित्य की श्रीवृद्धि में सक्रिय था।
इन अष्टादश लघु ग्रन्थों के अधिकांश रचयिता मदुरा अथवा पाण्ड्य देश के निवासी थे। इस बात का आधार यह है कि उन आचार्यों के नामों के साथ स्थान वाचकशब्द जुड़े हैं । उदाहरणार्थ, मदुरै तमिलाशिरियर मकनार ( तमिल आचार्य के पुत्र ) पूतंचेन्दनार, म० त० मकनार पूतंचेन्दनार के शिष्य कारियाशान् और कणि मेदैयार, मदुरै कण्णङ् कूत्तनार, मदुरै कूडलर किळार, पारोक्कत्तु (पाण्डिय देश का एक भाग ) पुल्लंकाडनार, मारन् पौरैयनार आदि।
नलडि नानूरु और फळमॉळि नानूरु 'नाल डि नानूरु' का अर्थ है चार चरणवाले चार सौ छन्द । इसे 'नालडियार' भी कहते हैं । यह चार सौ छन्दों का उत्तम संग्रह है, जिनके रचयिता
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