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तमिल जैन साहित्य का इतिहास
निघंटु में 'कणवकु' का अर्थ अक्षर भी बताया गया है । प्रथा, नियम, क्रमये अर्थ भी 'कणक्कु' शब्द के हैं । अतः क्रमबद्ध अक्षरों या भावों से युक्त ग्रन्थों को भी 'कणक्कु' कहते हैं । इनके अन्तर्गत 'पेरेडु' और 'कैयेडु' नामक सांकेतिक शब्दों को, परवर्ती शैवसंत तिरुनावुक्करशर् ने अपने गीतों में 'वरिनॅडुम् पुस्तकम्' ( क्रमबद्ध लंबी पुस्तक - कविता ) एवं 'कीळ, कणक्कु' शब्दप्रयोग द्वारा निर्दिष्ट किया है । अक्षरमालिका या अक्षरमाला को भी 'नॅडुङ् कणक्कु' या 'अरिच् चुवडि' कहते हैं । किन्तु यहाँ 'कणवकु' शब्द ग्रन्थ के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है । इसके प्रमाणस्वरूप, 'कीळ कणव कु' ( लघुग्रन्थ ) और 'मेrर्कणक्कु' ( बड़ा ग्रन्थ ) – इन दोनों का तमिल साहित्य में विशिष्ट स्थान है ।
जो ग्रन्थ छोटे-छोटे पद्यों में, शास्त्रीय विषय या होकर, स्वतंत्र तथा स्फुट भावों या नैतिक विषयों का 'कीळ, कणक्कु' कहते हैं । कई पंक्तियोंवाले पद्यों में वर्णन करता है, उसे 'पन्निरु पाट्टियल्' नामक लक्षण ( बड़ा ग्रन्थ ) कहा गया है ।
कथा की तरह क्रमबद्ध न वर्णन करता है, उसे विस्तृत विषय का जो ग्रन्थ में 'मेवर्कणक्कु'
इन नामों का प्रचलन अनुमानतः दसवीं शती से हुआ होगा । ग्यारहवीं सदी के ग्रन्थ 'वीर चोळियम्' की व्याख्या में 'पतिनॅणू कीळ कणवकु' का निर्देश । और, दसवीं शती के छंदशास्त्र 'याप्परंकल फारिकै' के व्याख्याकार ने भी उक्त ग्रन्थ का निर्देश किया है ।
अष्टादश ग्रन्थों का समुच्चय जिसे तमिल में 'पतिनॅण कीळ, कणक्कु ताँकै ' कहते हैं, संघकाल के अनंतर ही अपनी विशिष्ट संज्ञा से प्रसिद्ध हुआ । फिर भी, कई ग्रन्थ तोलकाप्पियम् के बताये 'अम्मै' नामक लक्षण के अंतर्गत उस समुच्चय में आते हैं । उनकी प्राचीनता और लोकप्रियता के कारण ही, इळंपूरणार्, गुणसागर आदि लक्षणग्रन्थ- व्याख्याताओं ने अपने समकालीन 'तेवारम्' आदि शैव साहित्य के पद्यों का उद्धरण न देकर इस समुच्चय के लघु ग्रन्थों के पद्यों के ही उद्धरण अपनी व्याख्याओं में दिये हैं । 'इन्ना नार्पदु' ( अहित चालीसी ) नामक ग्रन्थ में शिव, बलराम, कृष्ण और कार्तिकेय - इन देवताओं की आराधना का वर्णन होने से वह संघकालीन या उसके आसपास का माना जा सकता है। इसी प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र - इन त्रिदेवों की पूजा का वर्णन 'इनिय नापंदु' ( हित मधुरचालीसी ) ग्रन्थ में है । यह ग्रन्थ संघकाल का परवर्ती हो सकता है ।
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