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धर्मग्रन्थ
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ही कर्मबन्धन से मुक्ति पा सकते हैं।' धर्मजिज्ञासुओं के लक्षण और कर्तव्य के विषय में लेखक ने ग्रन्थारम्भ में विस्तृत विवेचन किया है। तदनन्तर बताया है कि श्रद्धालु शिष्यों तथा धर्मजिज्ञासुओं के निमित्त ही 'धर्माचरणसार' ग्रन्थ का प्रणयन किया है। अपने धर्मानुयायियों तथा श्रद्धालुओं के लिए ग्रन्थ रचने का प्रारम्भ सम्भवतः इन्हीं के समय में हुआ है। अपने मत-सिद्धांत की स्थापना और प्रभावना के लिए अन्य मतों या धर्मों का खण्डन आदि भी इस ग्रन्थ में है। इसमें शिव को अहंत बताया गया है । एकान्तवाद का खण्डन अन्य जैनाचार्यों की भांति इस ग्रन्थकर्ता ने भी किया है ।
यह 'अरनॅरिसारम्' ग्रन्थ संघकालीन पद्यों, 'पतिनॅण कीळ कणक्कु' ग्रन्थों तथा अन्य काव्यग्रन्थों के संकलनों में स्थान पा चुका है। अतः इसका रचनाकाल वही माना जा सकता है जो नेमीनाथर् बोर भवणन्दी ( भवणनन्दी ) का है अर्थात् ई० चौदहवीं शती। दूसरा ग्रन्थ 'अरुंकल चॅप्पु' लगभग सात सौ वर्ष पूर्व रचा गया, ऐसा मान सकते हैं।
इन अष्टादश लघु ग्रन्थों के प्रभाव से जो प्रवृति तमिल साहित्य में बढ़ने लगी, उसका किंचित् दिग्दर्शन यहाँ कराया गया। शिलप्पधिकारम्, मणिमेखले आदि महाकाव्यों का अवतरण उसी प्रवृत्ति की निष्पत्ति है । तमिल वेद (तिरुक्कुरल ) की महत्ता बताते समय, उसके सहसंकलनों पर भी प्रकाश डालना उचित होगा।
'पतिनॅण्कोळ, कणक्कु' के लक्षण अम्मै
उक्त ग्रन्थ-संग्रह का पारिभाषिक नाम है 'अम्मै'। इसका उल्लेख तोलकाप्पियर ने अपने लक्षण ग्रन्थ में किया है। 'अम्मै' ग्रन्थों में शब्दलाधव, अर्थगांभीर्य तथा माधुर्य की प्रधानता होती है। धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों का विवेचन एवं उद्बोधक व्याख्या ही वर्ण्य विषय होती है । 'मंडूकप्लुति' की शैली के कारण विषय वर्णन की विशृंखलता होने पर भी, उद्देश्यपूर्ति में शिथिलता नहीं आती। उनके पद्य छोटे, किन्तु प्रभावशाली और कोमल छंद के होते हैं। कणक्कु
'नॅडु कणक्कु', 'कणक्कायनार', 'समयक् कणक्कर' आदि तमिल शब्दों में 'कणकु' शब्द ग्रन्थ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। "दिवाकरम्' नामक तमिल
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