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तमिल जैन साहित्य का इतिहास मलम्' ( पाँच मूल तत्त्व ) आदि नाम दिये गये हैं। साधारण तत्त्वों को बालंकारिक शैली में बताने का क्रम इन ग्रन्थों के समय में खूब चल पड़ा मालूम होता है। धर्मोपदेशपरक ग्रन्थ
उक्त अठारह ग्रन्थों में, धर्मोपदेशपरक ग्रन्थ भी हैं। किन्तु दोनों रीतियों (सूक्ति तथा धर्मतत्त्व ) का समन्वय इन ग्रन्थों में इस प्रकार हुआ है कि उनका अलग-अलग विभाजन करना कठिन है। इनके अधिकांश पद्य धर्मोपदेश शैली के हैं। उपमा, दृष्टान्त आदि अलंकारों द्वारा अभिव्यक्त किये जाने से, वे बहुत प्रभावकारी हुए हैं । जैन विद्वानों की विशिष्ट शैली के अनुसार अधिकांश ग्रन्थ 'आडूठ मुन्निल' (पुरुषसम्बोधक ) और 'मकडूउ मुग्निल' ( स्त्री. सम्बोधक ) के रूप में रचित होने से, उन्हें पढ़ते समय ऐसा प्रतीत होता है कि वे पद्य हमारे ही हितार्थ, और हमको ही सम्बोधित करके लिखे गये हैं । जैन धर्म के विशिष्ट ग्रन्थ
इन अठारहों ग्रन्थों में अधिकांश जैनाचार्यों द्वारा रचित हैं। उनका नीति परक तथा धर्म-उपदेश प्रधान साहित्य तमिल वाङ्मय का अभिन्न एवं महत्त्वपूर्ण अंग बन गया है। अर्वाचीन नीति ग्रन्थ के रूप में हिन्दू तपस्विनी तथा कवयित्री औवैयार के प्रसिद्ध पद्य नन्नॅरि, नीतिनूल, नीतिनॅरि विळपकम् आदि रचनाओं पर अष्टादश ग्रन्थों का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। (अ) अरुकल चॅप्पु
यह नीति निर्देश के साथ-साथ जैनधर्म की विशेषता को अभिव्यक्त करने वाला ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ उक्त अष्टादश ग्रन्थों से अर्वाचीन माना जाता है। यह ग्रन्थ 'कुरळ पा" छन्द में लिखा गया है। यह 'अरुंकलान्वयम्' नामक जैनसंघ के पंडितों द्वारा रचित है। (आ) अरनॅरि सारम्
इसका अर्थ है धर्माचरणों का सार । मुनैप्पाडियार नामक जैनाचार्य ने 'वण् पा' छन्द में इस ग्रन्थ की रचना की है। इसका सारतत्त्व है, 'धनलिप्सा और भोग लिप्सा संग्रस्त इस संसार में धर्माचरण पर श्रद्धा रखनेवाले साधु पुरुष,
१. 'कुरळ् पा' संस्कृत के अनुष्टुप् वृत्त की तरह छोटा तथा आकर्षक तमिल छन्द है।
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