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२.
पदिनॅणकीळ कणवकु
जैन साहित्य की धारा
तोलकाप्पियम् की
।
इसमें शब्दों की
दूसरी धारा में,
जैन साहित्य की धारा तीन शाखाओं में बँट गयी । तरह व्याकरण को सरल-सुबोध रूप में प्रस्तुत किया गया निरुक्ति तथा वर्गीकरण करनेवाले निघंटुग्रन्थ भी शामिल हैं। काव्यग्रन्थ आते हैं। तीसरी धारा में वे ग्रन्थ हैं जिनमें जैन धर्म की विशेषताओं को प्रभावना के ढंग पर प्रस्तुत किया गया है । धर्म सिद्धान्तों को सर्वसाधारण के लिए सुन्दर तथा रोचक रूप में साहित्यिक विधा में प्रस्तुत करना सरल बात नहीं है | आचार्य तिरुवळ्ळकुवर ने दुःसाध्य कार्य को सुसाध्य बना दिया । उनकी बह अभूतपूर्व सफलता ही अन्य आचार्यों तथा साहित्यनिर्माताओं के लिए पथप्रदर्शक बनी। इस प्रकार, जैनाचायों ने व्याकरण, लक्षण तथा निघंटु ग्रन्थों, काव्यग्रन्थों और धर्मग्रन्थों - इन तीन विधाओं द्वारा तमिल वाणी को सुसम्पन्न बनाया ।
ऊपर तिरुक्कुरळ, का किंचित् परिचय दिया गया है । इस सिलसिले में उससे सम्बन्धित अन्य ग्रन्थों का परिचय देना उचित होगा, जिनका नाम है 'पदिनॅण कोळ, कणवकु' (अठारह धार्मिक या नैतिक ग्रन्थों का संग्रह ) । इन अठारह रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं
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ग्रन्थ का नाम १. नालडियार
२. नान् मणि कडिकै ३. इनियवै नादु
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धर्मग्रन्थ
रचयिता
अनेक जैन मुनियों के फुटकर पद्यों
विलम्बि नागनार
पूतम् चेन्दनार्
कपिलर्
मदुरै कण्णन् कूत्तनार पॉकयार्
४. इन्ना नादु
५. कार नादु
६. कळवळि नादु
१. इसका अर्थ है 'अठारह धार्मिक या नैतिक ग्रन्थों का संग्रह, !
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का संग्रह
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