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जैनधर्म और तमिल देश
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इन्द्रिय-सुखों पर विजय पाने वाले भगवान् ) वाक्य भी जिनदेव का ही निर्देश करता है। यह तो मानी हुई बात है कि तिरुक्कुरळ् में जहां-जहां भगवान् का उल्लेख या वर्णन आया है, वह हिन्दू तथा जैन दोनों धर्मों पर लागू होता हैं । अतः यह स्वीकार करना उचित होगा कि तिरुवळ्ळुवर ने ईश्वर के सामान्य स्वरूप को ही व्यक्त किया, जिसकी मान्यता समस्त सम्प्रदाय वालों में है।
तिरुक्कुरळ के उपदेश 'अरम्' (धर्म) ___ सभी धर्मों और मतों के सारभूत तत्त्वों का समन्वयस्थल तिरुक्कुरळ है। स्वच्छ प्रेम ही जीवनतत्त्व है, शुद्ध प्रेम और श्रद्धामयी गृहणी तथा संतान ही जीवनाधार हैं तथा आतिथ्य सत्कार की महिमा, प्रिय एवं हित मितवचन, कृतज्ञता की अनिवार्यता, संयम की महत्ता, सदाचरण की विशुद्धता, निरामिष भोजन की विशेषता, तपस्या की महिमा, सत्य, अस्तेय, अहिंसा एवं शांतिप्रियता की उपादेयता इत्यादि कई लोकमंगलकारी सदुपदेश तिरुक्कुरळ, के प्रथम विभाग में हैं। अपने-पराये की भेदबुद्धि से मुक्त तपस्वी की दशा का अच्छा वर्णन है। जन्म-मरण का तत्त्वविवेचन, मोक्षज्ञान, अनासक्ति और कर्मफल के अनुगमन का वर्णन यह सब प्रथम 'अरम्' अध्याय में सुंदर रीति से वर्णित है। सभी धर्मों के नेत्रभूत प्रेम, दया और तत्त्वज्ञान का समर्थन प्रधानतया किया गया है।
तिरुवळ्ळूवर ने 'पॉरैयुडैमै' (सहिष्णुता) का जो आदर्श स्थापित किया, वह सचमुच अपूर्व एवं उच्च कोटि का है । उस प्रकरण का पहला पद्य है
"अकळ्वारैत् तांगुम् निलम्बोलत् तम्मै
इकळ्वाप पॉरुत्तल तलै ।" अर्थात्, जैसे धरती अपने पर फावड़े मारनेवाले को भी खड़े होने की जगह देती है, उसी प्रकार मनुष्य को अपने अपराधी के दुष्कर्म सहकर उसे अपनाना चाहिए । यही सच्ची सहिष्णुता है, जो उत्तम धर्म माना जाता है।
आगे चलकर, सहिष्णुता की जो पराकाष्ठा उन्होंने बतायी, वह है, परकृत अपराधों को सह लेना तो साधारण धर्म है, पर उनके स्वल्प स्मरण तक को अपने मन में घर करने नहीं देना; अर्थात्, उसी क्षण उन्हें उदारता के साथ
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