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________________ १२६ तमिल जैन साहित्य का इतिहास तिरुवळ ळ वर और जैनधर्म तिरुवल्लुवर को लम्बे समय से जैन ग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयास चलता आया है । उनके नामों में एक 'देवर' है, जो जैन वाची माना जाता है और 'नायनार' का जो उपाधि-पद तिरुवल्लुवर को बाद में प्राप्त हुआ, वह भी केवल जैन परम्परा में, विशेषतया दक्षिण में, सुप्रचलित नाम है। किन्तु तिरुमाळिकै देवर, तिरुनीलकण्ठ नायनार आदि शैवसंतों के नाम भी पूर्वोक्त पदों के साथ मिलते हैं। वे उपाधिपद मध्य काल में अन्य धर्मावलम्बियों के साथ भी प्रयुक्त होने लगे । 'नीलकेशी' नामक तमिल जैन ग्रन्थ के व्याख्याता शमण (श्रमण) दिवाकर मुनिवर ने तिरुक्कुरळ् को 'एमदु मोत्तु' ( हमारा ग्रन्थ ) बताया है। किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि तिरुक्कुरळ् को सब लोग 'पॉदु मरै' ( सामान्य वेद ) कहते-मानते आये हैं। आचार्य तिरुवळ्ळूवर ने अपने ग्रन्थ में जन-जीवन को सभी पहलुओं में समुन्नत तथा सुसम्पन्न बनानेवाली उपादेय बातों को सूत्र शैली में निबद्ध किया है । उनको जनमंगलप्रेरित विराट् भावना की यह विशेषता है कि उनके वेदतुल्य अमर ग्रन्थ तिरुक्कुरळ् में सभी धर्मावलम्बियों के सर्वजनहितकारी उपदेश स्थान पा गये हैं। सम्भवतः इसी कारण, उस ग्रन्थ को प्रत्येक मतावलम्बी अपना कहने में गौरव का अनुभव करते हैं। यह बात तो निश्चित है कि जैन तथा बौद्ध धर्मों ने सर्वभूत दया एवं अहिंसा का जो विचार दिया, उसके आधार पर, सदाचार से विचलित न होकर साधारण मनुष्य भी गार्हस्थ्य संन्यास, सामुदायिक जीवन, राज्य-शासन तथा प्रेममार्ग-किसी के द्वारा भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है। इस सिद्धान्त को काव्यमय ढंग से ही नहीं, उत्तम शास्त्रीय रीति से भी अभिव्यक्त करनेवाला सर्वदर्शनसम्मान्य पूज्य ग्रन्थ तिरुक्कुरळ को छोड़कर और दूसरा नहीं हो सकता। यह ग्रन्थ 'अरम्' (धर्म ), 'पॉरुळ्' ( अर्थ ) और 'इन्बम्' ( काम )-इन तीन अध्यायों में विभक्त है। तिरुक्कुरळ को जैन ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए दिये जानेवाले प्रमाणों में यह भी एक है-'जैसे, तॉलकाप्पियम् के प्रारम्भ की ईश्वरवन्दना में प्रयुक्त विनयिन् नींगि विळंगिय अरिवन्' ( कर्मबन्धन से मुक्त एवं उज्ज्वल ज्ञानवाला ) मंगलाचरण अर्हत् भगवान् का निर्देश करता है, उसी प्रकार तिरुक्कुरल के छठे 'कुरळ्' ( पद्य ) में वर्णित 'पॉरिवायिल् ऐन्दवित्तान्' (पंच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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