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________________ जैनधर्म और तमिल देश १२९ साहित्यकारों द्वारा व्यवहार में लाया गया। कुछ विद्वानों का मत है कि वह हरिसमास तेलुगु और कन्नड भाषाओं में उपेक्षित होने पर भी, तिरुवकुरळ में पाया जाता है । इसके लिए जो पद उदाहरण में दिया गया था, वह 'ऑरूबन्दम्' पद, संस्कृतमिश्रित नहीं है, पूरा तमिल पद ही है । अतः 'दशनान्कु' ( दस चार-चालीस या चौदह ) आदि हरिसमास के नमूने संघकालीन कवि जक्कीरर् के 'नॅडनल्वाडै' नामक ग्रन्थ में पाये जाते हैं । अतः यह समास-प्रयोग प्राचीनकाल से ही व्यवहार में है । तिरुवकुरळ में जो-जो प्राचीन प्रत्यय, क्रियारूप और मात्रापूरक पाये जाते हैं, वे सब संघकालीन पद्यों में भी हैं और जिन्हें कुछ विद्वान् अर्वाचीन मानते हैं, वे भी संघ-साहित्य में मिलते हैं । अतः ऐसे अपूर्ण प्रमाण द्वारा तिरुक्कुरळ को अर्वाचीन सिद्ध करने की जो कोशिश कुछ लोग करते हैं, उसमें कितना सार है, यह वे ही जानें ! एक कथा चली आ रही है कि तिरुवळ्ळवर राजा एलोलसिंगन के आचार्य थे और उन्हीं के अनुग्रह से राजा के जहाज संकट से बचकर पार हुए । इस घटना का स्मरण, आज भी नाविक तथा गाड़ीवान 'एलेलो एलरा !' के तराने द्वारा करते रहते हैं। इसको आधार मानकर कुछ विद्वानों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि एलोल सिंगन् ई० पू० १४५ में सिंहल में शासन करने वाले तमिलनरेश सिंगन ही थे; अत: तिस्वळ्ळुवर का समय ई० पू० दूसरी शती मानना उचित होगा। प्रो० चक्रवर्ती नयिनार ने तिरुवळवर के बारे में यह मत व्यक्त किया है- 'एलाचार्य नामक जैन पंडित ने 'तिरुक्कुरळ' की रचना की है। इन्हीं का असलीनाम कुंदकुंदाचार्य था।' ये ई०पू० प्रथम शती में मद्रास के निकटवर्ती 'वंदवाशि' नामक स्थान के पास एक पर्वत पर तपस्या कर रहे थे। इनके चरणचिह्न वहां अब भी हैं जिनकी पूजा श्रद्धालु जैनी रोज करते हैं। इन्हीं के श्रावक शिष्य ये तिरुवल्लुवर । तिरुवळ्बर अपने आचार्य के ग्रन्थ 'तिरुक्कुरळ' को संघ (विद्वन्मण्डली) में ले जाकर स्वीकारार्थ प्रथमतया वहां पढ़. सुनाया । यह वृत्तान्त जैन परंपरा में प्राचीन काल से ही मान्यता प्राप्त है। किन्तु इस अनुश्रुति का कोई प्रामाणिक आधार नहीं मिलता है। १. यह नाम तमिल में 'कुन्दन कुन्दनाचारियर' और 'कुण्डन कोण्डनाचारियर' के रूपों में भी व्यवहृत होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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