SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ तमिल जैन साहित्य का इतिहास और वे स्वयं काव्यवृत्तांत के समकालीन थे। ऐतिहासिक छानबीन से पता चलता है कि सिंहलनरेश कयवाहु का समय ई० दूसरी सदी था । अन्य प्रमाणों से भी उक्त महाकाव्य का रचना काल ई० दूसरी शती सिद्ध है। संघ काल की विकसित एवं परिष्कृत काव्यधारा का एकमात्र प्रतीक है 'शिलप्पधिकारम्' अतः उसके पूर्ण के संघसाहित्य का काल-निर्णय करते समय हमें ई० दूसरी शती से भी आगे बढ़ना होगा। द्रमिळ संघ 'बौद्ध संघ', 'श्रमण संघ' आदि शब्द तत्तद् मतावलम्बी भिक्षुओं या साधुओं के दल के लिए प्रयुक्त होते रहे हैं । सम्भवतया, 'तमिळ संघम्' उक्त नामों के अनुकरण से व्यवहार में चल पड़ा होगा। किंतु, 'तमिळ संघम्' को साम्प्रदायिक संगठन-संघ समझना भ्रम होगा। एक द्राविड संघ के होने की बात कन्नड के शिलालेखों में उल्लिखित है।' वहाँ उल्लेख 'द्रमिळ संघम्' के रूप में हुआ। जैन ग्रंथ 'दर्शनसार' में द्रविड संघ का उल्लेख पाया जाता है । उसके रचयिता देवसेन ने स्वयं लिखा है कि उक्त संघ की स्थापना ई० ४७० में आचार्य वज्रनंदी ने की थी। यह द्रविड़ संघ तमिल साहित्य के इतिहास के सुप्रसिद्ध संधत्रय में नहीं आता । एक ही संघ में एकत्रित हुए जैन साधुओं का मूल संघ चार गणों में विभक्त हो गया। उनके नाम थे, नंदीगण, सेनगण, सिंहगण और देवगण । इन गण-संघों के विद्वानों ने अपने नाम के अंत में स्वगण के नाम को भी जोड़ लिया। नंदीसंघ से दमिळसंघ के अलग होने की बात परवर्ती शिलालेखों से ज्ञात होती है। द्रमिळसंघ का एक विभाग ही 'अरु कलान्वयम्' था। 'अन्वय' शब्द इधर कक्षा या विभाग के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इस 'अरुंकलम्' विभाग के विद्वानों ने 'अरु काल-चप्पु' आदि ग्रन्थों की रचना की, जिनके साथ अपने संघ विभाग के नाम को भी जोड़ दिया। अरुंकलान्वयम् को नंदीगण के विभाग के रूप में कन्नड-शिलालेखों में निर्दिष्ट किये जाने से, यह बात स्पष्ट प्रतीत होती है कि उस समय सभी जैनसंघों में 'अरुंकलम्' (उत्तम आभूषण ) आदि कई तमिल शब्द व्यवहृत हुए थे। देव और नंदी शब्दों को कई जैनाचार्यों ने अपने नामों के अंत में जोड़ लिया। ऐसे अनेक १. Epigraphia Carnatica, Vol. V., Hassan Jq. 131; Epi. Carn. Vol. IV, Gurdlupet Jq. 27. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy