________________
जैनधर्म और तलिम देश
१२१ दल निलम्' ( समुद्र-तटवर्ती प्रदेश ) की कष्टबहुल स्थिति का वर्णन है । इनके परवर्ती व्याख्याकारों ने लिखा है कि 'कलैक्कोट्टुत् तण्डु' नामक ग्रन्थ उक्त जैन कवि की रचना है, कुछ विद्वानों का मत है कि वह ग्रन्थ निघंटु ( शब्द कोश ) रहा होगा। इनके जैनत्व को सूचित करने के लिए ही, उनके नाम के पूर्व 'निगण्टन्' ( निगण्ठ < निर्ग्रन्थ ) का प्रयोग किया गया है । सम्भवतः ये दिगम्बर मुनि रहे होंगे। निघंटु के रचयिता होने के कारण, इनके नाम के पूर्व 'निगण्टन्' ( निघंटुकर्ता ) का विशेषण लग गया है, यह भी कई शोधकर्ताओं का मत है। फिर भी, लक्षणग्रंथ, व्याकरण तया कोश-निघंटु आदि ग्रन्थों की रचना द्वारा जैन विद्वानों ने भारतीय वाङ्मय तथा भाषाओं की जो अनुपम सेवा की है, उसका भारत के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है । संघकाल का निर्णय
अधिकांश संघ साहित्य तीसरे संघ का ही मिलता है । अतः 'संघकाल' तथा 'संघ साहित्य' शब्द अंतिम अर्थात् तृतीय संघ का निर्देशक है। साधारणतः पल्लवों के आगमन के पूर्व का समय संघकाल माना जा सकता है। ई० तृतीय शती के मध्य में पल्लवों का सम्पर्क तमिलनाडु के कांचीपुरम् में बढ़ने लगा।
इतिहासवेताओं के मतानुसार ई० चौथी सदी के अन्त में पाटलीपुर का ध्वंस हुआ। पाटलीपुर की समृद्धि नंदों द्वारा वहां भूगर्भ में सुरक्षित की गयी धनराशियों की चर्चा सोन ( शोण ) नदी के तट पर उस नगरी के अवस्थित होने की बात संघकालीन पद्यों में पायी जाती है। इससे ज्ञात होता है कि पाटलीपुर के ध्वंस के पूर्ण संघकाल था। __ यूनान और रूम के यात्रियों ने ई० प्रथम और दूसरी शतियों की अपनी भारतयात्रा के संस्मरणों में तमिलनाडु के वाणिज्य-व्यवसाय तथा आचारविचार का जो आँखों देखा वर्णन किया है, वह संघ-पद्यों से अधिक साम्य रखता है। अतः संघकाल का समय और भी पहले माना जा सकता है।
शिलप्पधिकारम् के वंचि काण्डम् में उल्लेख है कि सिंहल-नरेश कयवाहु ने चेरनरेश चेंगुटुवन द्वारा आयोजित सती देवी कण्णकी की मूर्ति प्रतिष्ठा के उत्सव में भाग लिया था। शिलप्पधिकारम् ( तमिल महाकाव्य ) के रचयिता इळगों अडिगळ के मुख्य काव्यपात्र चेरनरेश चेंगुटुवन के छोटे भाई थे
१. अहनानूरु पद्य-सं० २०५ और कुरुन्तॉक, पद्य०सं० ७५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org