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जैनधर्म और तमिल देश जैनों का निर्देश 'तेवारम्' आदि शैव संत साहित्य और शिला लेखों में है। यह जैनसंघ तमिल की श्रीवृद्धि में सदा तत्पर रहा है, अतः उसे भी 'तमिळ संघम् के नाम से गौरवान्वित केना उचित ही होगा।
तिरुक्कुरळ
शैव संत साहित्य तेवारम् के समय ( ई० सातवीं शती ) तक जैनधर्म तमिलनाडु में अपनी जड़ जमा चुका था। इसके साथ ही तमिल साहित्य में भी कई नवीन प्रयोग होने लगे। 'अकवल् पा' नामक छंद विशेष ही अधिकांश संघकालीन रचनाओं के लिए व्यवहृत हुआ था। इसका स्वरमाधुर्य उपदेश को ही प्रधान माननेवाले जैन रचनाकारों के लिए अनपेक्षित होने से, उन्होंने अपने उद्देश्य के लिए उपयुक्त 'वेण् पा' नामक छंद में ही काव्यरचना शुरू की। यद्यपि संघपद्यों में यह छंद यत्र-तत्र प्रयुक्त हुआ है, तथापि इसका अधिक प्राधान्य संघकाल के अवसान में या 'तेवारम्' आदि भक्ति साहित्य के काल में ही हुआ था।
तिरुक्कुरळ् और संघग्रन्थ
इस परिवर्तन का मार्गदर्शन तिरुक्कुरळ ने ही किया था। तिरुक्कुरळ के रचयिता स्वनामधन्य महर्षि तिरुवळ्ळुवर के कई आशय संघग्रन्थों में भी उपलब्ध हैं। उदाहरणस्वरूप, 'चॅदि कॉण्ड्रोक्कू उरिद इल्लॅन' यह संघ पद्य ( 'पुरनाकर' का पद्यांश ); तिरुक्कुरळ का यह कुरळ अंश-उविल्ले चयनन्ड्रि कॉण्ड्र मकवर्कु' (कृतघ्नों की उन्नति सर्वथा असम्भव है)-सरल व्याख्यासा लगता है। इसी प्रकार कपिलर् नच्चकैयार आदि संघकालीन कवियों के पद्यों में भी तिरुक्कुरळ के भाव पाये जाते हैं।
तिरुवळ्ळुवमाले
यह ग्रंथ तिरुक्कुरळ की प्रशंसा में रचे गये पद्यों का संग्रह है । इन पद्यों के रचयिता संघकालीन कवि बताये जाते हैं। मगर यह भ्रममूलक तथा सुनी सुनाई बात है। बारहवीं शती के जैनाचार्य नेमिनाथर् के 'नेमिनाथम्' नामक तमिल व्याकरण ग्रंथ की समकालीन व्याख्या में उक्त 'तिरुवळ ळ वमाल' का एक पद्य उद्धृत है। इसी प्रकार 'कल्लाडम्' नामक भक्तिग्रंथ में भी उस 'माल' का एक पद्य उद्धृत् है । संघकाल में हिन्दू पौराणिक कथाओं के समा--
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