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________________ ११८ तमिल जैन साहित्य का इतिहास इसी प्रकार यह भी कहा जाता है कि 'पाणिनि के सूत्र 'सुप्तिहन्तम् पदम्' का अनुवाद तोलकाप्यिर ने पेयर (संज्ञा) और विनै ( क्रिया ) के रूप में किया है।' संज्ञा और क्रिया का विभाजन सब भाषाओं में सामान्य बात है। अतः पाणिनि और पतंजलि के मंतव्यों का निर्देश तोलकाप्पियम् में यत्र-तत्र होने से ही, उस नथ की मौलिकता पर संदेह कदापि नहीं किया जा सकता। इलक्कणम् 'इलक्कणम्" शब्द तमिल में व्याकरण के अर्थ में प्रयुक्त होता है। यह शब्द 'लक्षण' का अपभ्रंश मालूम होता है । वररुचि और पतञ्जलि दोनों ने अपने ग्रंथों में लक्षण शब्द का प्रयोग व्याकरण के अर्थ में किया है । इसलिए उनके समय के पूर्व से ही 'लक्षण' शब्द का प्रचलन रहा होगा । तोल काप्पियम् के सूत्रों में वररुचि के पूर्ववर्ती वैयाकरणों के मत का अनुकरण दिखाई देता है; अतः उस ग्रंथ को वररुचि के समय से पहले का मानना उचित होगा। __ तोलकाप्पियम् के 'आंगवै ऑरुपालाक...' वाले सूत्र में बत्तीस (३२) व्यभिचारी भावों का उल्लेख है। भरत मुनि के नाटयशास्त्र में तैतीस (३३) व्यभिचारी भाव निर्दिष्ट हैं। काध्यप्रकाश में भी ३३ ही व्यभिचारी भाव कहे गये हैं । इसी प्रकार, 'मेयप्पाडु' ( रस ) के आठ भेद तोल काप्पियम् में बताये गये हैं, जब कि संस्कृत ग्रंथों में नव रसों का विधान हुआ है । अवस्था या दशा के विषय में भी थोड़ा मतभेद दिखाई देता है। इन सब तथ्यों से, यह. अनुमान लगाना उचित होगा कि आचार्य भरत के पूर्व ही यह मतभेद चल पड़ा था, जो तरकालीन कुछ विद्वानों में समादृत भी था । इस क्रम में, तोलकाप्पियर को जो अंश जंचा, उसे अपना लिया। भरतमुनि ने सप्त समृद्ध भाषाओं में एक का नाम 'दाक्षिणात्या' बताया हैं । यह निश्चय ही तमिल भाषा होनी चाहिए। क्योकि, तमिल में नाटयधर्म, लोकधर्म, रस, छंद, राग तथा अभिनय आदि के बारे में प्राचीन काल से स्वतंत्र अनुसंधान होता आया था। उन सब बातो को दृष्टि मे रखकर ही आचार्य भरत ने तमिल का उल्लेख किया। प्राचीन काल में अनुसंधानपूर्वक साहित्य में जो निष्कर्ष या तथ्य सामने आये उनमें से अनेक तो कोप्पियम् में पाये जाते है, जब कि उनका उरलेख तक अन्यत्र अनुपलब्ध है। उदाहरण के लिए 'इलवकणम्' ( लक्षण ) शब्दः व्याकरण के अर्थ में पहले प्रयुक्त हुआ था; पर कालांतर में उसका अलंकार में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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