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तमिल जैन साहित्य का इतिहास
आया है और लक्षण, रीति तथा व्याकरण ग्रंथों को 'नूल्' ( सूत्र ) शब्द से निर्दिष्ट किया है । जैसे पर्वत को भी छोटा दर्पण
होता है ।
प्रतिच्छाया द्वारा दिखा देता है, वैसे ही छोटा सूत्र बड़ी दुरूह बातों को भी व्यक्त कर देता है । पद्यगद्य का विभाजन तथा प्रचलन उस समय था । पद्यों के बीचोबीच गद्य प्रयुक्त किया गया, जैसे चम्पू-काव्य में सम्पूर्ण गद्यग्रंथ भी उस समय के पाये जाते हैं । उन गद्य ग्रंथों में अधिकांश पंचतंत्र - जैसे नैतिक इतिवृत्त, पशु-पक्षियों के मुँह से व्यक्त कराये गये नीति - उपदेश एवं उपहास- व्यंग्य, उपमा-दृष्टान्त आदि अलंकार द्वारा वर्णित पहेली बुझौवल, जन-जीवन की afat-भरी लोकोक्तियाँ, मुहावरे और मंत्रवाक्य- ये ही थे । इनके अतिरिक्त छोटे-छोटे वाक्योंवाले ग्रंथ, छन्दों के उदाहरणवाले पद्य, गद्यपद्यात्मक प्राचीन कथाएँ, श्रृंखलाबद्ध लंबी पद्यरचना जिसमें ऊँचे आदर्श बताये जाते हैं, उद्बोधक नीति कथाएँ जो देहाती एवं देशी भाषाओं के मिश्रित रूप में रची गयी हैं, सरस लोकगीत और गीति नाटक --- यह सब प्रकार भी तोलकाप्पियर् के समय में प्रचलित थे । इनमें जैनधर्म की छाप स्पष्ट प्रतीत होती है ।
तोलकाप्पियम् और जैन प्रभाव
यद्यपि तोलकाप्पियर् को जैनाचार्य सिद्ध करने का कोई उपयुक्त या ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं है तथापि उनके ग्रंथ 'तोलकाप्पियम्' से यह पता अवश्य चलता है कि तमिल भाषा तथा साहित्य के विकास में जैनधर्म का योगदान महत्वपूर्ण रहा है । जैनधर्म को तमिलनाडु में जनमंगलपोषक बनने का गौरव इसलिए प्राप्त हो सका कि तत्कालीन जैन साधुओं तथा आचार्यों ने बड़ी तत्परता एवं निःस्वार्थ भाव से पवित्र लोकसेवा की । उनके शुद्धाचरण और प्रकाण्ड पाण्डित्य ने भी जनसाधारण को आकृष्ट किया था। आचार्यं सिद्धसेन दिवाकर और वृद्धवादी मुनि की जीवनियों से उपर्युक्त कथन की सत्यता प्रकट है और जैनाचार्यों के धर्मप्रचार की यह भी विशेषता रही कि के राजा-रंक का भेद नहीं मानते थे । उनका कार्यक्षेत्र जितना विशाल था, उतना ही पवित्र तथा प्रेरणादायक था उनका उदार भाव । मुख्यतः वे उस ही प्रदेश की व्यावहारिक भाषा पर अधिकार प्राप्त कर, उसके द्वारा ही अपने धर्म का प्रचार करते थे । इसी कारण, अन्य धर्म की अपेक्षा जैनधर्म बहुत शीघ्र ही अतिशय वेग से तमिलनाडु में पामर से पंडित तक फैल गया ।
तोलकाप्पियम् का रचना - काल क्या था, इसका निर्णय करना कठिन है ।
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