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तमिल जैन साहित्य का इतिहास ज्यादा उचित होगा कि तोलकाप्पियर् के काल में जैनाचार्यों ने तमिल में ही छंदशास्त्रविषयक ग्रंथों की रचना की, जिनका प्रचार विद्वन्मण्डली में हुआ। अतः इस कारण से तोलकाप्पियर् को जैन नहीं माना जा सकता । उन्होंने केवल प्रचलित रीति का उल्लेख अपनी रचना में किया। जैनशास्त्रज्ञों अथवा व्याख्याकारों ने 'पण्णत्ति' की व्याख्या करते समय किसी भी मुल जैन-ग्रन्थ को आधार रूप में उद्धृत नहीं किया है। इसके अतिरिक्त, तोलकाप्पियर ने :पण्णत्ति' को पहेली-कथा का अंग बताया, जैन छन्दशास्त्र के अनुसार केवल छंद-ग्रन्थ नहीं कहा। ___तोलकाप्पियर् के विषय में व्याख्याकार तेय्वच्चिलैयार ने अपनी टीका में कहा-'इन् नूल रॉयदान् वैदिक मुनिवन् ( इस ग्रन्थ तोलकाप्पियम् के रचयिता वैदिक मुनि थे )।'
तोलकाप्पियर ने आकाश को पंचमहाभूतों में से एक माना। उन्हीं का सूत्र है
"निलन्ती नीर्वळि विशुम्पोडैन्दुम् कलन्द मयक्कम् उलकमादलिन्"
-मरपियल्-८९ अर्थात्, पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, आकाश इन पांचों भूतों का समूह ही जगत् है।
'तोलकाप्पियर पंच भूतों की मान्यतावाले वैदिक मत के ही अनुयायी थे। जैनाचार्य यद्यपि आकाश का अस्तित्त्व स्वीकार करते हैं, तथापि वे उसे पंचभूतों के अन्तर्गत नहीं मानते। अतः उन्हें जैन मानने का पर्याप्त प्रमाण नहीं।' यह है दूसरे पक्ष का तर्क । उल्लेख-निर्देश की बातें लेकर किसी रचयिता के अभिमत या धर्म का निर्णय करना उचित नहीं। तोलकाप्पियर ने एक स्थान पर दुर्गा की स्तुति की है, तो दूसरी जगह विष्णु की वन्दना की है और वेदवैदिक, ऊँच-नीच आदि की भी चर्चा की है। इन सब तथ्यों से यह पता चलता है कि उनके समय में ही वैदिक तथा जैन दोनों धर्मों का प्रभाव लोकजीवन पर था। जैनाचार्य नार कविराज नम्बी आदि ने तमिल के आचारविचार पर लिखी गई अपनी पुस्तकों में निष्पक्ष भाव से दोनों धर्मों के प्रभाव का वर्णन किया है।
१. देखिए, 'कालम् उलगम् ...' नामक सूत्र की टीका ( तोलकाप्पियम् ) ।
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