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तमिल जैन साहित्य का इतिहास चित्त की प्रभावशाली छाप--जैनधर्म की विकसित परम्परा की प्रतिच्छायाआचार्य तोलकाप्पियर् के रीतिग्रंथ 'तोलकाप्पियम्' में स्पष्ट दिखाई देती है। 'न'-कारांत वर्णावलो:
तमिल की वर्णावली 'अ' से शुरू होकर 'न' पर समाप्त होती है।' तोलकाप्पियर ने अपने ग्रन्थ में एक सूत्र द्वारा वर्ण-क्रम निर्धारित किया है। व्यास्याताओं ने उस क्रम के उद्देश्य के बारे में विभिन्न युक्तियां प्रस्तुत की हैं।
इळंपूरणर नामक व्याख्याकार ने लिखा है, 'न' अक्षर पुंलिंगद्योतक है। ( उदा० राजन्, रामन् आदि शब्दों का अन्त्याक्षर 'न' पुंलिंग रूप में आता है।) दिगम्बर-मान्यता के अनुसार स्त्रियों को मोक्ष नहीं होता। तपस्या करके स्त्रीलिंग को छेदकर पुनः पुरुषरूप में जन्म लेने के बाद ही मोक्षलाभ कर सकती हैं। दूसरी ओर श्वेताम्बर-मान्यता के अनुसार स्त्री को मोक्ष हो सकता है। श्वेताम्बर-मान्यता है कि 'मल्लि' नामक तीर्थंकर स्त्री थी । दिगम्बरों का कहना है कि मल्लीदेवी स्त्री पर्याय में तपस्या करने के बाद अगले जन्म में पुरुष पर्याय धारण करने पर वे तीर्थकर मलिल्नाथ कहलाये और मोक्ष प्राप्त किया। अत: 'न' कार को तमिल वर्णमाला का अन्त्याक्षर बनाने का उद्देश्य यही होना चाहिए कि वह अक्षर मोक्ष प्राप्ति के योग्य पुरुषत्व का द्योतक है। इसलिए उसकी विशेषता तथा महत्ता दिखाने के लिए तोलकाप्पियर ने उस अक्षर को अंत में रखा है।"
इस बात का उल्लेख वैदिक धर्म के पंडित श्री नच्चिनाकिनियर ने भी अपनी व्याख्या में किया है। "पंडित श्री नच्चिनार्किनयर् कुछ काल तक जैन धर्मानुयायी रहने के बाद, वैदिकधर्म में वापस आये'-इस अनुश्रुति की पुष्टि शायद उक्त उल्लेख से ही होती है। किन्तु, व्याख्याता की दलील को मानकर आचार्य तोलकाप्पियर को जैन सिद्ध करना उचित नहीं लगता। हाँ, यह कहा जा सकता है कि 'न'-कारान्त वर्णमाला की व्यवस्था जैनाचार्यों की देन थी। मगर, इसके प्रामाणिक आधार की आवश्यकता है। विद्वानों को इस विषय में खोज करना चाहिए।
१. यह 'न' अक्षर 'त'वर्ग का अन्तिम अक्षर नहीं है। यह तमिल का
विशिष्ट अक्षर है। उच्चारण 'न' और 'ण' के बीच का होता है। यह अधिकतर पदान्त में आता है।
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