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________________ जैनधर्म और तमिल देश ૧૧૧ विभाजित करते हैं । इसका आधार प्रसिद्ध जैनाचार्य भवणंदी ( भवणनंदी) के लोकप्रिय तमिल व्याकरण ग्रन्थ 'नन्नूल' में मिलता है। यद्यपि जैनों ने 'ऐयरिवुयिर' ( पंचज्ञानी जीव ) को चिन्तनशील और अचिन्तनशील नामक दो भागों में विभक्त किया था, फिर भी उन्होंने 'आररियिर' नामक छठा विभाग नहीं माना। पंचेन्द्रियों के साथ मन को भी भिन्न इन्द्रिय मानने की परम्परा हिन्दूधर्म में ही पायी जाती है। इसका आधार गीता आदि में मिलता है। अतः वैदिक धर्म के इस सिद्धान्त का समर्थन ही 'तोलकाप्पियम्' ग्रन्थ में हुआ है। इसका उद्धरण तया अनुमोदन तमिल वेद 'तिरुक्कुरळ' के सुविख्यात व्याख्याकार श्री परिमेळगर् ने तथा संघकालीन ग्रन्थ कलित्ताकै के व्याख्याता श्री नच्चिनाक्किनियर ने अपनी व्याख्या में किया है। किन्तु यह दलील भी एकतरफा ही मानी जायगी। भले ही जैनों ने 'षड्ज्ञानी जीव' का विभाजन न किया हो, फिर भी वे पंचज्ञानी जीव में ही 'संज्ञी' और 'असंज्ञी' के भेद मानकर, पूर्वोक्त नये विभाजन का समन्वय कर चुके थे। जैनग्रन्थ 'अष्ट पदार्थसार' में मन को प्राण की कोटि में रखा गया है। अतः उपर्युक्त जीव-विभाजन को किसी मुख्य मत या सिद्धान्त के दायरे में न बैठाकर, 'विशिष्ट तमिल-रीति' मान लेना समुचित होगा। कर्मबन्ध से विमुक्त ___तोलकाप्पियर ने अपने ग्रन्थ 'तोलकाप्पियम्' के 'मरपियल' (रीति. प्रकरण ) में, मूल ग्रन्थ तथा अनुकरण-ग्रन्थ के अन्तर पर प्रकाश डालते हए, मूल ग्रन्थ के बारे में लिखा था 'विनै यिन् नीगि विळगिय अरिवन्' (अर्थात्, कर्मबंध से विमुक्त एवं उज्ज्वल ज्ञानवाले)। इस पद की अपने ढंग से व्याख्या करते हुए कुछ विद्वान् कहते हैं, 'पहले कर्मबंध में फंसकर, फिर उससे विमुक्त होनेवाले तथा सत्यज्ञान (केवल ज्ञान) वाले अर्हत् भगवान् का ही उल्लेख इस वचन में किया गया है। अतः तोलकाप्पियर् जैन माने जाते हैं।' जैनेतर विद्वानों का कहना है कि 'विनैयिन् नींगिय' (कर्मबंध से विमुक्त) का अर्थ है, स्वभाव से ही स्वयं कर्मबंध से विमुक्त तथा सत्यज्ञानी भगवान् सर्वेश्वर। इस प्रकार विद्वान् लोग अपने-अपने मत-सिद्धांत के अनुसार इस वचन का अर्थ लगाते हैं । ऐसे अर्थ-विन्यास की कोई सीमा नहीं है। तटस्थ दृष्टि से विचार करने पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि तमिलभाषी जनता के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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