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जैनधर्म और तमिल देश
१०९.
है । जैसे कायक्लेशपूर्वक तपस्या करनेवाले तपस्वियों के लिए साधारणतः 'श्रमण' शब्द का प्रयोग होता है, उसी प्रकार 'पडिमैयोन् ' या ' पडियोन्' ( तपस्वी ) शब्द का प्रयोग केवल जैन मुनियों के लिए हुआ है, ऐसी बात नहीं । सुप्रसिद्ध शैव साहित्य 'सेवारम्' में, तपश्चर्या और व्रतानुष्ठान के अर्थ में 'पडिमम्' (पडि मैं ) शब्द का प्रयोग मिलता है । उस शब्द का दूसरा अर्थ है मूर्ति, विग्रह या शरीर । स्वयं तोलकाप्पियर् ने भी उस अर्थ में 'पडिमै' शब्द का प्रयोग किया है ।
अतः 'पडिम' शब्द का अर्थ साधारणत: स्वरूप या मूर्ति मानना उचित होगा | आचार्य तोलकाप्पियर् ने ब्राह्मण क्षत्रियादि वर्णवालों के पवित्राचरण के अर्थ में भी 'पडिमें' शब्द का प्रयोग किया है। उन्हीं का यह प्रयोग है 'एनोर् पडियम्' ( ब्राह्मण क्षत्रियादि का पवित्राचरण ) । संघकालीन कवियों के पद्यसंग्रह 'पति, पत्तु' में एक हिन्दू राजा का वर्णन है 'निन् पडिमैयान' अर्थात्, पवित्र आचरणवाला । इसी प्रकार, 'पडिमें' और 'पडियोन्' शब्दों के व्यापक अर्थ के लिए कई प्रमाण अन्य विद्वानों ने भी प्रस्तुत किये हैं । अतः तोलकापियम् के 'शिरप्पु पायिरम्' के रचयिता पणम्बारनार् के 'पडिमेयोन' शब्द प्रयोग के आधार पर, आचार्य तोलकाप्पियर् को जैन सिद्ध करना कठिन है । आरवुियिर् ( छह प्रकार के ज्ञानवाले जीव )
तोलकाप्पियर् को जैन सिद्ध करने के लिए दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि उन्होंने जैन सिद्धान्त के अनुसार छह प्रकार के ज्ञान भेद से जीवों का विभाजन किया था ।
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छह प्रकार के ज्ञानवाले जीवों का विभाजन इस प्रकार है१. स्पर्शज्ञानवाले जीव- पेड़, पौधे, घास आदि ।
२. दो ज्ञानवाले - स्पर्शज्ञान के साथ जीभ द्वारा रसज्ञान पानेवाले जीव- सीप, कीड़ा, घोंघा आदि ।
३. तीन ज्ञानवाले — पूर्वोक्त दोनों ज्ञानों के साथ गंधज्ञानवाले जीवचींटी, दीमक आदि ।
४. चार ज्ञानवाले- उन तीनों के साथ रूपज्ञान ( देखने की शक्ति) वाले - भ्रमर आदि ।
जीव
५. पाँच ज्ञानवाले उन चार ज्ञानों के साथ श्रवणज्ञानवाले जीव
छोटे-बड़े पशु-पक्षी ।
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