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जैनधर्म और तमिल देश
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यह सिद्धान्त आर्हत मत में (जैनधर्म में ) स्वीकृत है । अतः 'आरम्भवीर' का उल्लेख एक जैनाचार्य के रूप में हुआ है।
राजा सोमारन् जटैयन् के काल में जैनधर्म की प्रभावना करनेवाले भट्टारकों के जीवननिर्वाह के लिए की गयी व्यवस्था का पता कळगुमलै (गृध्रपर्वत) के शिलालेखों से चलता है। ई० ८९३ के एक शिलालेख से इस प्रकार के धर्मप्रचारक विनयसेन सिद्धान्त भट्टारक तथा उनके शिष्य कनकसेन सिद्धान्त भट्टारक के विषय में जानकारी मिलती है। इसी प्रकार दूसरे शिलालेख से, राजा आदित्य के समकालीन गुणकीर्ति भट्टारक और उनके शिष्य कनकवीरक्कुरत्तियर की जानकारी मिलती है। चोळों के काल में
पूर्वोक्त दोनों जैनाचार्य चोळ-शासन के काल के थे। चोळाधीश परान्तकन्-१ के समय (ई० ९४५) के एक शिलालेख में जैनाचार्य विनभासुरगुरु और उनके शिष्य वर्धमान पेरिय अडिगळ् (परमाचार्य) का उल्लेख है ।। सत्यवाक् नामक गंगनरेश ने वळिळ गिरि पर एक मंदिर का निर्माण कराया। वहाँ कुछ श्रमणों की प्रस्तरमूर्तियां हैं। वहां के शिलालेखों द्वारा बालचन्दर भट्टारर्, गोवर्धन भट्टारर्, श्री बाणरायर् के गुरु भवनंदी (भवणनंदी) भट्टारर् और इनके शिष्य देवसेन भट्टारर् आदि की जानकारी मिलती है। पूर्वोक्त आचार्य भवनंदी को ही अर्वाचीन तमिल व्याकरण-ग्रन्थ 'नन्नूल' के रचयिता कहा जाता है। किन्तु नन्नूल-लेखक भवनंदी राजा चीयगंगन् (सिंह गंग) के समकालीन थे और उन्होंने उसी नरेश के लिए नन्नूल-ग्रन्थ रचा था। पूर्वोक्त शिलालेख से ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि वे श्री बाणरायर् के गुरु थे। ____ मलय कोयिल् ( जैन मंदिर ) में आचार्य गुणसेन रहते थे, यह बात पट्रक्कोट्टै शिलालेख-४ में उल्लिखित है। चित्तण्णवायिल् (पुदुक्कोट्टै के निकटवर्ती जैन गुफामंदिर ) के प्राचीन शिलालेखों में 'तोळु कुन्रत्तु कडवुळन् (पूज्य शिखरवर्ती भगवान्-तीर्थकर या जैनमुनि ), नीलन् तिरुप्पूरणन् .
१. S. I. I. Vol. v. २. I. M. P. ( Salem ) 74. ३. S. I. I. Vol. III p. 92 एवं I. M. P. ( Arkat ) 744. ४. I. M. P. ( North Arkat ) 216. ५. E. I. Vol. IV. p. 140. ,
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