________________
१०४
तमिल जैन साहित्य का इतिहास
इधर तमिलनाडु में अर्थबली के शिष्य 'भूतबली' पुष्पदंत और तमिल महाकाव्य जीवकचिन्तामणि तथा चूळामणि के रचयिता तिरुत्तक्कदेबर् और तोलामोळि देवर् आदि जैन साधु लोकविश्रुत थे, अत: जैन-धर्म की लोकप्रियता बढ़ने लगी । इसी समय क्षीणकाय जैनसंघ का विभागं 'द्राविड-गण' ' द्राविडसंघ' के नाम से पुनः प्रसिद्ध हुआ । अज्ञात जैनाचार्य द्वारा रचित तमिल के 'यशोधर काव्यम्' का मूल आधार ग्रंथ आचार्य पुष्पदन्त की रचना ही माना जाता है । आचार्य पुष्पसेन के शिष्य गुणसेन और कनकसेन दोनों ई० ८९३ में धर्मपुरी में थे और यह भी माना जाता है कि वरगुण विक्रमादित्य के शासनकाल में आचार्य गुणसेन जीवित थे ।
तमिलभाषी जैनाचार्य
चोळों के पूर्व
तिरुज्ञान सम्बन्धर् आदि शैव संतों के अथक प्रयास से तमिलनाडु में भले ही जैनधर्म का प्रभाव क्षीण हुआ हो, फिर भी यत्र-तत्र उसका असर दिखाई देता ही रहा । जैनाचार्यों की तमिल साहित्य सेवा धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ सुचारु ढंग से चल रही थी और 'जीवक - चिन्तामणि' आदि काव्यग्रन्थों का निर्माण हुआ ।
इधर, उपलब्ध शिलालेखों से ज्ञात होनेवाले जैनाचार्यो का उल्लेख करेंगे । 'ईसवी तीसरी - चौथी शती में चन्द्रनंदी और इलैयभटारर् नामक दो जैन साधुओं ने संलेखना द्वारा देह का त्याग किया। ईसवी आठवीं शती के अंत में राजा नंदिबोध के समय में आचार्य नागनंदी जीवित थे । २ पाण्डिय ( पाण्ड्य ) नरेश मारन् चडैयन के शासन काल में तिरुविरुन्तले नामक स्थान में ( दक्षिण पाण्डिय देश) अरुळाळत्तु और अच्चनंदी दोनों भट्टारर् (भट्टारक) रहते थे । ये सम्भवतः उत्तरवर्ती अरुळाळ प्रान्त से दक्षिणी छोर तक गये होंगे। एक ऋग्वेदी से प्रशंसित मलयध्वज नामक जैनमुनि भी उस समय थे । * शेंतलै - शिलालेखों में आरम्भवीर और गणसेन भट्टारक का उल्लेख है । अणुओं के समन्वय से जगत् की उत्पत्ति का वर्णन 'आरम्भवाद' कहलाता है
9. M. A. R. 1904, 288.
२. E. I. Vol. IV, p. 136.
3. A. R. I. E. 1916, p. 122. ४. पुदुकोट्टै शिलालेख सं० ९ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org