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________________ जैनधर्म और तमिल देश १०३ 'पाटलिपुरम्' के नाम से प्रसिद्ध जैन केन्द्र था। वहाँ के जैन संघ के प्रमुख आचार्य सर्वनंदी ने ई० ४५८ में 'लोक विभागम्' नामक ग्रन्थ लिखा। उस समय कांची में सिंहवर्म का शासन था। इसका उल्लेख सर्वनंदी ने अपने प्रन्थ में किया है। यह काल जैन धर्म की दृष्टि से 'उज्ज्वल युग' रहा है। वज्रनंदी का संघ कुछ विद्वानों का मत हैं कि वज्रनंदी नवीं शती के थे और इस संघ के स्थापक थे आचार्य अर्थबली (Saletore---Mediaeval Jainism, p.233)। अपने मत के प्रमाण में उन्होंने जो शिलालेख उद्धृत किये ( E. C. II--254 p. 109, 110 : 258--p. 117); उनसे यही प्रकट होता है कि देवसंघ, नंदीसंघ, सिंहसंघ और सेनसंघ-इन चार विभागों में बँटकर ही जनसंघ काम करता था। पर, तमिलनाडु के विद्याकेन्द्र मदुरै नगरी में तमिलभाषी जैनों के प्रभाव से जो 'द्राविडसंघ' दिनोंदिन प्रगति करता हुआ ख्याति पा रहा था, उसकी चर्चा तक उन शिलालेखों में नहीं मिलती। यह द्राविडसंघ आदिकाल की महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना थी। आचार्य देवसेन ने अपने ग्रन्थ 'दर्शनसार' में तो इसका स्पष्ट उल्लेख किया है कि ई० ४७० में वज्रनंदी ने मधुरै में 'द्राविडसंघ' की स्थापना की थी। कुछ लोगों की धारणा है कि अर्थबली ने द्राविडसंघ का कहीं उल्लेख नहीं किया है, अतः वह संघ अर्वाचीन हो सकता है। किंतु यह धारणा गलत है, क्योंकि ऐसा मान लेने पर मानदेवसेन के काल-निर्णय में बाधा खड़ी हो सकती है और उनके प्रामाणिक ग्रन्थ की उपेक्षा होगी। शैवसंत तिरुज्ञानसम्बन्धर, सुन्दर आदि कवियों के गीतों से यह पता चलता है कि द्राविडसंघ में देव, सेन, वीर; (सिंह), नंदी आदि नामवाले जैनाचार्य रहते थे। उन विद्वानों के भ्रम का कारण यही है कि जनसंघ 'नंदीगण' के अन्तविभाग के रूप में एक द्राविडगण था, जिसका दूसरा नाम 'अरु कलान्वयम्' ( उत्तमकलाकेन्द्र ) था। किन्तु 'द्राविडसंघ' उससे भिन्न था। इसके साथ कई तमिल ग्रन्थों और शिलालेखों में कुन्दकुन्द, समंतभद्र आदि आचार्यों का भी जिक्र हुआ है । ई० सातवीं शती के समाप्त होते-होते जैनधर्म का आदिकाल लुप्तप्राय हो गया। जैनों द्वारा स्थापित 'द्राविडसंघ' भी तमिलनाडु में विगतप्रभाव हो गया। अतएव कर्णाटक बड़ा प्रभावशाली जैन केन्द्र बना। तब तमिलनाडु से कई जैनाचार्य श्रवणबेळगोळ की ओर जाने लगे। इस अस्तोन्मुख स्थिति में द्राविडसंघ का नाम 'द्राविडगण' पड़ना सहज सम्भव था। वहां के आचार्य पुष्पसेन अपने नाम का निर्देश तमिल-रीति के अनुसार 'पुरपचेनर' ही करते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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