________________
१०२
तमिल जैन साहित्य का इतिहास कतिपय शोधकर्ताओं का मत है कि भाचार्य अकलंकदेव ने कांचीनरेश हिमशीतल (ई० ७८८) के दरबार में बौद्ध भिक्षुओं को शास्त्रार्थ में हराया था। फिर उन्होंने राजा साहसतुंगन् की सभा में जाकर अपना परिचय दिया । उसका दूसरा नाम 'दंतिदुर्गन्' था । वहाँ कुछ समय तक रहने के बाद, आचार्य अकलंकदेव तमिलनाडु के तिरुप्पनम्पूर में रहने लगे। इनके बाद क्रमशः। सुप्रसिद्ध जैन ग्रन्थ 'हरिवंशपुराण' के रचयिता जिनसेन (प्रथम), वीरसेन, जिनसेन (द्वितीय) और इनके शिष्य गुणभद्र तमिलनाडु में आये । इनमें, आचार्य वीरसेन ने 'जयधवला टीका' नामक ग्रन्थ लिखना प्रारंभ किया, लेकिन इसको पूरा किया उनके मनीषी शिष्य आचार्य जिनसेन (द्वितीय) ने। इसी प्रकार आचार्य जिनसेन के महापुराण के अधूरे कार्य को उनके शिष्य गुणभद्र ने ई०८९८ में 'उत्तरपुराणम्' नामक ग्रन्थ लिखकर पूरा किया। इनके बाद, तमिल के सुविख्यात पंच महाकाव्यों में तृतीय 'जीवकचिन्तामणि' के रचयिता तिक्त्तक्क देबर, 'चूळामणि' (जैन महाकाव्य) के कवि तोलामोळि देवर और गुणभद्र के शिष्य अर्थबली-तीनों उस समय के ख्यातिलब्ध जैनाचार्य थे।
कर्णाटक में यह दंतकथा है कि सुप्रसिद्ध शैवाचार्य तिरज्ञानसम्बन्धर के साथ हुई तर्कगोष्ठी में आचार्य जिनसेन ने भी भाग लिया था। पर यह कथा निराधार प्रतीत होती है, क्योंकि तमिल ग्रन्थों में उस घटना का कोई प्रमाण नहीं मिलता। तिरुज्ञानसंबन्धर् को आचार्य जिनसेन के समकालीन मानने के कोई प्रमाण नहीं हैं। वास्तव में जैनधर्म का आदिकाल तिरुज्ञानसम्बन्धर के समय में ही ( ईसवी सातवीं शती) अंतिम चरण में पहुंच चुका था। आचार्य: जिनसेन (द्वि०) का समय नवीं शताब्दी है । कलभ्र
कर्णाटक के राज्य शासन को स्थिर करनेवाले जैनों का प्रभाव, 'करनटर' (कन्नड या कर्णट) माने जानेवाले कल भ्रों के शासन के साथ ही तमिलनाडु में फैला । इसी समय आचार्य वज्रनंदी ने मधुरै नगरी में एक जैनसंघ की स्थापना की थी। यह ई. पांचवीं शती की घटना है। आचार्य देवसेन ने ई. ९३३ में रचित अपने 'दर्शनसार' नामक ग्रन्थ में लिखा है कि वि० सं० ५२६ ( ई० ४७० ) में वज्रनंदी ने मधुरै में द्राविड़-संघ की स्थापना की। पूज्यपाद ने जिस द्राविड-गण ( अंतविभाग ) को देखा, वही वज्रनंदी के समय में विशाल संघ बना। सुप्रसिद्ध शैव संत अप्पर के समय तक तिरुप्पातिरिप्पुलियू'
१. यह स्थल मद्रास शहर से करीब १२५ मील दक्षिण में है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org