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________________ जैनधर्म और तमिल देश १०१ किन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि यह सब उल्लेख ईसा की नवीं शताब्दी के पूर्व के नहीं हैं । अतः उस दंतकथा में उल्लेखित चन्द्रगुप्त चंद्रगुप्त द्वितीय और भद्रबाहु भद्रबाहु-तृतीय हो सकते हैं । मगर बौद्धधर्म के प्राचीन एवं प्रामाणिक ऐतिहासिक ग्रंथ 'महावंश' में इस बात का उल्लेख मिलता है कि चंद्रगुप्त मौर्य के समय में सिंहलनरेश पाण्डुकाभय ने निगंठों (जैनों) की सहायता की थी । इसके अतिरिक्त प्रथम या द्वितीय शती के तथा ब्राह्मी लिपि में अंकित कुछ जैन शिलालेख दक्षिण तमिलनाडु की गुफाओं में पाये जाते हैं, यद्यपि कुछ लोग - इन्हें बौद्ध शिलालेख कहते हैं, किन्तु अधिकांश विद्वान् उन्हें जैन- शिलालेख मानते हैं । अतः यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि जैन श्रमणों ने ईसा की दूसरी सदी में ही तमिलनाडु में आकर, तमिल भाषा द्वारा अपने सम्प्रदाय का प्रसार करना शुरू कर दिया था । यद्यपि आज तमिलनाडु में प्राचीन जैन परम्परा लुप्तप्राय हो गयी है, फिर "भी एक समय ऐसा था, जब तमिलदेश के कोने-कोने में जैनधर्म की दुंदुभी गूंज उठी थी । जैनों के इस स्वर्णयुग का पता उपलब्ध शिलालेखों और अनेक स्थानों पर भूगर्भ से प्राप्त प्रस्तर मूर्तियों द्वारा स्पष्टतया चलता है । इतना ही नहीं, अमणप्पाक्कम्, अरुकत्तुरै, नमण समुद्रम्, जिनालयम् पंचपाण्डवमलै, अमणकुडि, शमणर्तिडल, शमणमले, अरुकमंगलम्, पस्तिपुरम् आदि जैनसुचक शब्दों से बने स्थलों के नामों से भी जैनधर्म की व्यापकता तथा लोक'प्रियता का परिचय मिलता है । कई स्थलों के नाम के अंत में 'पळिक' (जैनमठ - उपाश्रय) शब्द पाया जाता है | आदिकाल जैन परंपरा में कुंदकुंदाचार्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है । यह माना जाता है कि ये ई० पूर्व, या ई० सन् की पहली शती में हुए थे । ये तमिल प्रदेश के निवासी थे । इनके द्वारा रचित ग्रन्थों का दिगंबर-परंपरा में विशेष बहुमान है । हिन्दूधर्म में जो स्थान 'प्रस्थानत्रयी' अर्थात् उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता का है, वही स्थान दिगम्बर जैन परंपरा में कुंदकुंदाचार्य के 'प्राभृतत्रय' अर्थात् पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार और समयसार का है । अनुसंधान से पता चलता है कि कुंदकुंदाचार्य के शिष्य 'बलाक पिच्छ' कहलाते थे । इनके बाद गुणनंदी - का नाम लिया जाता है । ईसवी दूसरी शती में आचार्य समन्तभद्र ने कांचीनरेश को बाद में पराजित किया । फलस्वरूप कांचीनरेश संन्यास ग्रहण कर 'शिवकोटि आचार्य के नाम से प्रख्यात हुए । यही जैनों का आदिकाल था, - जिसका तमिलदेश में अपना ऐतिहासिक महत्त्व था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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