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________________ पौराणिक महाकाव्य ८५ अपने पूर्ववर्ती आचार्यों में पादलिप्त, हरिभद्र और जीवदेव का उल्लेख तथा ग्रंथों में तरंगवती का उल्लेख किया है। चन्द्रप्रभ नाम के कई गच्छों में अनेक आचार्य हो गये हैं। १२ वीं शताब्दी में एक चन्द्रप्रभ महत्तर ने सं० ११२७३७ में विजयचन्द्रचरित्र की रचना की थी और दूसरे चन्द्रप्रभसरि ने पौर्णमासिक गच्छ की स्थापना सं० ११४९ में की थी और प्रमेयरत्नकोश, दर्शनशुद्धि को रचना की थी। कह नहीं सकते कि प्रस्तुत रचना के रचयिता कौन चन्द्रप्रभ हैं। १३ वें तीर्थकर पर भी प्राकृत में विमलचरियं लिखे जाने का उल्लेख मिलता है। अनन्तनाहचरिय: इसमें १४ वें तीर्थंकर का चरित वर्णित है। ग्रन्थ में १२०० गाथाएँ हैं।' ग्रन्थकार ने इसमें भव्यजनों के लाभार्थ भक्ति और पूजा का माहात्म्य विशेष रूप से दिया है। इसमें पूजाष्टक उद्धृत किया गया है जिसमें कुसुम पूजा आदि का उदाहरण देते हुए जिन पूजा को पाप हरण करनेवाली, कल्याण का भण्डार और दारिद्रय को दूर करने वाली कहा है। इसमें पूजाप्रकाश' या पूजाविधान भी दिया गया है जो संघाचारभाष्य, श्राद्धदिनकृत्य आदि से उद्धृत किया गया है। रचयिता एवं रचनाकाल-इसके रचयिता आम्रदेव के शिष्य नेमिचन्द्रसूरि हैं। इन्होंने इसकी रचना सं० १२१६ के लगभग की है । सम्भवतः ये आख्यानकमणिकोश, महावीरचरियं (सं० ११३९) आदि के कर्ता नेमिचन्द्रसूरि से काल की दृष्टि से भिन्न हैं। उक्त नेमिचन्द्र का समय १२ वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। १५ वें तीर्थकर धर्मनाथ पर प्राकृत रचना का उल्लेख मिलता है। १. वही, पृ० ३५८. २. वही, पृ० .. ३. ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर जैन संस्था, रतलाम, सन् १९३९, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ५६९-५७०. १. जिनरत्नकोश, पृ० २५५. ५. वही, पृ० १८९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002099
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, Kavya, & Story
File Size11 MB
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