________________
जैन साहित्य का वृहद् इतिहास गया है। इस तरह इसमें विविध धर्मोपदेश और कथा-प्रसंगों के बीच सुपार्श्वनाथ का संक्षिप्त चरित विखेरा गया है। अधिकांश भाग में सम्यग्दर्शन का माहात्म्य, बारह भावक व्रत, उनके अतिचार तथा अन्य धार्मिक विषयों को लेकर अनेको कथाएँ दी गयी हैं जिनसे तत्कालीन बुद्धिवैभव, कलाकौशल, आचार-व्यवहार, सामाजिक रीतिरिवाज, राजकीय-परिस्थिति एवं नैतिक जीवन आदि के चित्र प्रस्तुत किये गये हैं।
इस चरित की भाषा पर अपभ्रंश का पूरा प्रभाव है। इसमें लगभग ५० पद्य अपभ्रंश के भी समाविष्ट पाये जाते हैं। संस्कृत की शब्दावली भी अपनायी गयी है।
रचयिता और रचनाकाल-इसके प्रणेता का नाम लक्ष्मणगणि है। इनके गुरु का नाम हेमचन्द्रसूरि था जो हर्षपुरीयगच्छ के थे और जयसिंहसूरि के प्रशिष्य और अभयदेवसूरि के शिष्य थे । इनके गुरुभाइयों में विजयसिंहसूरि और श्रीचन्द्रसूरि थे। इस ग्रन्थ की रचना उनने धंधुकनगर में प्रारम्भ की थी और समाधि मंडलपुरी में। उन्होंने इसे वि० सं० ११९९ में माघ शुक्ल १० गुरुवार के दिन रचकर समाप्त किया था। उस वर्ष चौलुक्य नृप कुमारपाल का राज्याभिषेक भी हुआ था।
सुपार्श्वनाथ चरित पर प्राकृत में जालिहरगच्छ के देवसूरि तथा किसी विबुधाचार्य की रचनाओं का उल्लेख मिलता है। चंदप्पहचरिय:
प्राकृत भाषा में आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ पर कई कवियों ने रचनाएँ की हैं । उनमें प्रथम रचना सिद्धसूरि के शिष्य वीरसूरि ने सं० ११३८ में की थी।
जिनेश्वरसूरिकृत द्वितीय चरित' में ४० गाथाएँ हैं जो बड़ी सरस हैं। इसमें चन्द्रप्रभ नाम की सार्थकता में कवि कहता है कि चूंकि माता को गर्भकाल में १. जैन विविध साहित्य शास्त्रमाला, बनारस, सन् १९९८, जिनरत्नकोश, - पृ० १४५; इसका गुजराती भनुवाद-जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर से
सन् १९२५ में प्रकाशित हुआ है। २. विकमसएहिं एकारसेहिं नवनवइवास अहिएहि-प्रशस्ति, गा० १५-१६. ३. जिनरत्नकोश, पृ० ४४५. ४. वही, पृ० ११९. ५. इसका प्रकाशन महावीर ग्रन्थमाला से विक्रम सं० १९९२ में हुआ है।
.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org