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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ने अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में इसकी रचना की थी। डा० बूल्हर ने इसकी रचना का समय वि० सं० १२१६-१२२८ माना है। वि० सं० १२२९ में हेमचन्द्र का स्वर्गवास हुआ था ।' __ प्रशस्ति से यह भी मालूम होता है कि इसकी रचना योगशास्त्र की रचना के बाद की गई थी। योगशास्त्र की वृत्ति में कई श्लोक त्रि० श० पु० च० से उतारे गये हैं। इससे यह मान सकते हैं कि उक्त वृत्ति और इस चरित की रचना एक साथ हुई थी। इतना ही नहीं परिशिष्ट पर्व की योजना भी उस समय बन गई थी। इसके भी कई प्रमाण मिलते हैं।
हेमचन्द्र ने यद्यपि पूर्वाचार्यों या उनकी कृतियों का उल्लेख नहीं किया है, फिर भी उन्होंने अनेक पूर्वाचार्यों की कृतियों का उपयोग किया है। उनसे पूर्व दिग० और श्वेता० दोनों सम्प्रदायों के कवियों ने इस विषय को संस्कृत, प्राकृत
और अपभ्रंश में लिखा है। उस समय तक तीर्थंकरों के अलग-अलग अनेक आख्यान भी लिखे गये थे। विमलसूरि, रविषेण, शीलांक, जिनसेन प्रथम, द्वितीय, स्वयम्भू, पुष्पदन्त, धवल आदि के ग्रन्थों के अतिरिक्त, आवश्यक तथा दूसरे सूत्रों के ऊपर लिखी चूर्णियाँ तथा हरिभद्रसूरि की टीकाएँ आदि में आनेवाली कथाएँ भी हेमचन्द्राचार्य के समक्ष थी ही। पुरोवर्ती आचार्यों की अनेक कृतियों का हेमचन्द्राचार्य ने अपनी इस कृति में न्यूनाधिक रूप से उपयोग किया है । त्रिषष्टि-शलाका-पुरुषचरित से प्रभावित रचनाएँ: ____ चतुर्विंशतिजिनेन्द्रसंक्षिप्तचरितानि (भमरचन्द्रसूरि)-ई० सन् १२३८ के पूर्व रचित इस कृति में २४ अध्याय और १८०२ पद्य हैं। इसमें २४ तीर्थकरों के संक्षिप्त जीवन चरित्र दिये गये हैं। रचयिता का भाव सभी जिनों के चरित्र को थोड़े में लिखने का था इसलिए इसमें काव्यकला प्रदर्शन करने का कोई अवसर नहीं मिला । प्रत्येक अध्याय में मुख्य विषयों की चर्चा इस प्रकार है१. पूर्वभव, २. वंशपरिचय, ३. तीर्थकर को विशेष नाम दिये जाने की व्याख्या, ४. च्यवन, गर्भ, जन्म, दीक्षा और मोक्ष के दिन, ५. चैत्यवृक्ष की ऊँचाई, ६. गणधर, साधु, साध्वी, चौदहपूर्वी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी,
१. विशेष जीवनचरित्र के लिये देखें-हेमचन्द्राचार्य-जीवन-चरित्र (कस्तूरमल
बांठिया), चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी १. परिशिष्ट 'अ' और 'ब' में ग्रंथ-सूची दी गई है।
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