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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
उदायन, प्रभावती, कपिलकेवली, कुमारनन्दि सोनी, उदायि, कुलवालुक और कुमारपाल राजा आदि के चरित्र और प्रबन्ध बहुत प्रभावक रूप में वर्णित हैं । इनमें भी श्रेणिक, कोणिक, अभयकुमार, आर्द्रकुमार, दद्दुराङ्कदेव, अन्तिम राजर्षि उदायन और गोशालक आदि के वृत्तान्त बहुत विस्तार से दिये गये हैं । इनमें से कई अंश अन्य ग्रन्थों में अलस्य हैं । पाँचवें और छठे आरा ( काल ) का तथा उत्सर्पिणी काल में आने वाला वृत्तान्त भी बड़े विस्तार से आया है । इन और अन्य अनेक बातों से परिपूर्ण यह चरित है ।
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त्रि० श० पु० च० में तत्कालीन अनेक सामाजिक चित्र दृष्टिगोचर होते हैं यथा ऋषभदेव के विवाह प्रसंग में हेमचन्द्राचार्य ने समकालीन प्रथाएँ और रीति रस्में दी हैं । '
धार्मिक दृष्टि से इसकी महत्ता दश पर्वों में अलग-अलग तीर्थकरों की देशना द्वारा जैन सिद्धान्तों के विवेचन से ज्ञात होती है। इसमें नयों का स्वरूप, क्षेत्रसमास, जीवविचार, कर्मस्वरूप, आत्मा का अस्तित्व, बारह भावना, संसार से विरक्ति आदि का सरल और चित्ताकर्षक भाषा में वर्णन किया गया है ।"
दो विभाग
लिखा हुआ।
ऐतिहासिक दृष्टि से भी त्रि० श० पु० च० के दशवें पर्व के अत्यन्त उपयोगी हैं । एक तो कुमारपाल के भविष्य कथन रूप में चरित और दूसरा ग्रन्थ को अन्तिम प्रशस्ति । अन्त्य प्रशस्ति की कई बातें तो प्रकरण के प्रारम्भ में दी गई हैं परन्तु अखिल प्रशस्ति ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है । १०वें पर्व के १२ वें सर्ग में कुमारपाल के चरित का उल्लेख किया गया है । उसमें पाटन का, कुमारपाल का, उसके राज्यविस्तार का, जिनप्रतिमा के प्रासाद का तथा दूसरी अनेक बातों का वर्णन आया है । राज्यविस्तार का वर्णन करते हुए लिखा है कि :
1
'स
कौबेरीमातुरुष्कमैन्द्रीमात्रिदशापगाम् । याम्यामा विन्ध्यमाम्भोधिं पश्चिमां साधयिष्यति' ।। "
१.
पर्व १ स० २. ७९६-८०४.
२. गुजराती भाषान्तर पर्व १-२ की प्रस्तावना, पृ० ३.
पर्व १०, स० १२, श्लो० ३७-९६.
३.
४. वही, श्लो० ५२.
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