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पौराणिक महाकाव्य
२९. सनत्कुमारचरित, ३८. सुभूमचरित, ४९-५०-५१ नेमिनाथ-कृष्ण-बलदेवचरित, ५२. ब्रह्मदत्तचक्रवर्ति, तथा ५४. वर्धमानस्वामिचरित-इन छ: चरित्रों में कथानायकों के विविध प्रसंगों का विस्तार है। ३. अजितस्वामिचरित, १७-१८. द्विपृष्ठ-विजयचरित, २०-२१ स्वयम्भू-भद्रबलदेवचरित्र, ३४-३५ अरस्वामि (तीर्थ-चक्र० )-चरित-इन चार चरित्रों में अवान्तर कथाओं के कारण विस्तार किया गया है। १४-१५. त्रिपृष्ठ-अचलचरित्र में सिंहवध-घटना के अतिरिक्त मुख्य रूप से पूर्वभवों के वृत्तान्त के कारण विस्तार हुआ है। ५. संभवचरित, ८ पद्मप्रभचरित १०. चन्द्रप्रभचरित्र-इन तीन चरितों में क्रमशः कर्मबन्ध, देव-नरक गति तथा नरकों से सम्बद्ध उपदेश ही अधिक हैं, चरित तो एक तालिका मात्र ही रह गए हैं।
___इसमें समागत वरुणवर्मकथा, विजयाचार्यकथा और मुनिचन्द्रकथाइन तीन अवान्तर कथाओं की तथा ब्रह्मदत्तचक्रवर्ति चरित के अधिकांश भाग की रचनाशैली आत्मकथात्मक है ।
अन्य चरित-ग्रन्थों से इसमें विशेषता यह है कि इसमें सर्वप्रथम हमें नाटक रूप में अवान्तर कथा रचे जाने का नमूना मिलता है।
इस काव्य का पश्चात्कालीन संस्कृत-प्राकृत कई काव्यों पर प्रभाव है।
सांस्कृतिक सामग्री की दृष्टि से इसमें युद्ध, विवाह, जन्म एवं उत्सवों के वर्णन में तत्कालीन प्रथाओं और रीति-रिवाजों के अच्छे उल्लेख मिलते हैं। इसमें चित्रकला और संगीतकला की अच्छी सामग्री दी गई है। इसकी भाषा, शैली आदि महाकाव्य के अनुरूप ही हैं।
ग्रन्थकार और उनका समय-इस चरित ग्रन्थ के रचयिता ने अपनी पहचान तीन नामों से दी है.-१. शीलांक या सीलंक, २. विमलमति और ३. सीलाचरिय । ग्रन्थ के अन्त में पाँच गाथाओं की एक प्रशस्ति दी गई है उससे ज्ञात होता है कि ये निवृत्ति कुल के आचार्य मानदेवसूरि के शिष्य थे। लगता है आचार्य पद प्राप्त करने के पूर्व और उसके बाद ग्रन्थकार का नाम क्रमशः विमलमति और शीलाचार्य रहा होगा। 'शीलांक' तो उपनाम जैसा प्रतीत होता है जो संभवतः उनकी अन्य रचनाओं में भी प्रयुक्त हुआ हो ।
1. प्रस्तावना, पृ० ५२-५४.
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