________________
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास शिलालेख आदि से दामनन्दि नाम के कई आचार्यों का पता चलता है। सबका समय ११वीं से १३ शताब्दी तक के बीच है। कर्नाटक प्रदेश के चिकहनसोगे तालुके में प्राप्त कई शिलालेखों में दामनन्दि का उल्लेख मिलता है। जिनसे ज्ञात होता है कि दामनन्दि भट्टारक का और उनकी शिष्य-परम्परा का हनसोगे (पनसोगे) के चङ्गाल्व तीर्थ की समस्त वसदियों ( जिनालयों) में तथा पास-पड़ोस की वसदियों में पूर्ण एकाधिकार था। हनसोगे में चार प्रसिद्ध बसदियाँ थीं-आदीश्वर, शान्तीश्वर, नेमीश्वर और निनवसदि । अन्तिम जिनवसदि में तीन स्वतंत्र खण्ड थे जिनमें क्रमशः चन्द्रप्रभ, पार्श्वनाथ एवं वर्धमान प्रतिमाएँ मूल नायक के स्थान पर प्रतिष्ठित थी। अनुमान किया जाता है कि ये दामनन्दि भट्टारक ही उक्त चतुर्विंशतितीर्थंकरपुराण के रचयिता थे और स्थानीय महत्त्व की दृष्टि से इस महापुराण में से उपयुक्त छः तीर्थकरों के चरित्र संकलित करके एक पृथक ग्रन्थ के रूप में उन्होंने या उनके शिष्यों ने प्रसिद्ध कर दिये । सम्भवतः यही (प्रस्तुत) वह कथित पुराणसारसंग्रह है। शान्तिनाथचरित्र के अपेक्षाकृत अधिक विस्तार को एवं सर्गान्त वाक्यों को तथा उसके अन्तिम सर्ग के अन्तिम पद्य को देखने से ऐसा लगता है कि ग्रन्थ रचयिता का स्थायी निवास हनसोगे (पनसोगे) की शान्तीश्वर वसदि ही था। वहीं उन्होंने अपने ग्रन्थ की रचना की। भगवान् शान्तिनाथ के वे विशेष भक्त रहे प्रतीत होते हैं । इन दामनन्दि का समय ११वीं शताब्दी के मध्य के लगभग पड़ता है। ___ डा० ज्योतिप्रसाद जैन की मान्यतानुसार ये दामनन्दि एक दूसरे दामनन्दि अर्थात् रविचन्द्र के शिष्य भी हो सकते हैं जिनका समय लगभग १०२५ ई० है । ये चतुर्विंशतिपुराण, जिनशतक (श्लोक सं० ४०००) नामक स्तुति-स्तोत्र-संग्रह, नागकुमारचरित्र, धन्यकुमारचरित्र तथा दानसार ( श्लोक सं० ३०००)इन पाँच ग्रन्थों के रचयिता हैं । डा० जैन ने अनुमान किया है कि ये ही दामनन्दि एक महावादी विष्णुभट्ट को पराजित करने वाले थे तथा आयज्ञानतिलक के रचयिता भट्ट वोसरि के गुरु थे तथा अपने समय के प्रभावक आचार्य थे।
पुराणसार नाम से कुछ अन्य रचनाएँ मिलती हैं जिनमें भ० सकलकीर्ति कृत गद्यात्मक है और दूसरी अज्ञातकर्तृक है।
१. जै०शि० ले० सं० भा० २, नं० २२३, २३९, २४१. २. जैन सन्देश, शोधांक २२, भा० दि० जै० सं० मथुरा, अक्टू. १९६५. ३. जि० र० को०, पृ. ११६, २५२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org