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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ग्रन्थ कर्ता ने अपनी गुरुपरम्परा का उल्लेख किया है। तदनुसार वे मूलसंघ सेनान्वय में हुए वीरसेन मुनि के प्रशिष्य और जिनसेन के शिष्य थे। उक्त प्रशस्ति से सूचना मिलती है कि अमोघवर्ष जिनसेनका बड़ा भक्त था। उसी प्रशस्ति में महापुराण और उत्तरपुराण का आधार कवि परमेश्वरकृत 'गद्यकथाग्रन्थ' बतलाया है। गुणभद्र ने लिखा है कि अति विस्तार के भय से और
अतिशय हीन काल के अनुरोध से अवशिष्ट महापुराण को उतने संक्षेप में संग्रह किया है।
ग्रन्थकर्ता ने कहीं भी ग्रन्थ समाप्ति का काल नहीं दिया। प्रशस्ति के दूसरे भाग में उनके शिष्य लोकसेन ने लिखा है कि जब राष्ट्रकूट अकालवर्ष के सामन्त लोकादित्य बंकापुर राजधानी से सारे वनवास देश का शासन कर रहे थे तब शक सं. ८२० की श्रावण कृष्णा पंचमी के दिन इस पुराण की भव्यजनों द्वारा पूजा की गई।
अब तक विद्वानों ने शक सं० ८२० को ग्रन्थ समाप्ति का संवत् माना था जो गलत है। स्व० पं० प्रेमी के मत से उत्तरपुराण की समाप्ति जिनसेन के दिवंगत होने अर्थात् श० सं० ७६५ के अनतिकाल बाद पांच-सात वर्षो में अर्थात् लगभग ७७० या ७७२ होनी चाहिये ।' ___ गुणभद्र की अन्य कृतियों में २७२ पद्यों का आत्मानुशासन नामक ग्रन्थ मिलता है जो वैराग्यशतक की शैली में लिखा गया है ।
कुछ विद्वान् जिनदत्तचरित्र ( ९ सर्ग) को भी इनकी रचना बताते हैं। पर लगता है कि यह किसी पश्चात्कालीन भट्टारक गुणभद्र की रचना है।'
पुराणसार-इसमें चौबीस तीर्थंकरों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। यह संक्षिप्त रचनाओं में प्राचीन रचना है ।
रचयिता एवं रचनाकाल-इसके रचयिता लाट बागड़संघ और बलात्कार गण के आचार्य श्रीनन्दि के शिष्य मुनि श्रीचन्द्र हैं। इन्होंने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १०८० में समाप्त की थी। इनकी अन्य कृतियों में महाकवि पुष्पदन्त के महापुराण पर टिप्पण तथा शिवकोटि की मूलाराधना पर टिप्पण हैं।
१. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १४१-१४२. २. वही, पृ० ५६५, ३. वही, पृ० २८७.
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