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पौराणिक महाकाव्य
कवि-परिचय और रचनाकाल-इस महापुराण के रचयिता दो व्यक्ति हैंजिनसेन और उनके शिष्य गुणभद्र । जिनसेन को सम्मान के लिए भगवजिनसेन भी कहा जाता है। महापुराण के अन्त में कोई प्रशस्ति नहीं दी गयी पर उत्तरपुराण के अन्त में जो प्रशस्ति है उससे इस कवि के जीवन का थोड़ा परिचय मिलता है। इनकी अन्यतम कृति जयधवल टीका से ज्ञात होता है कि ये बाल्यकाल में ही दीक्षित हो गये थे, सरस्वती के बड़े आराधक थे तथा शरीर से दुबलेपतले तथा आकृति से भव्य और रम्य नहीं थे। कुशाग्र बुद्धि, ज्ञानाराधना और तपश्चर्या से इनका व्यक्तित्व महनीय हो गया था। इन्होंने ब्राह्मण स्मृतियों का बहुत अध्ययन किया था इसलिये या स्वयं ब्राह्मण होने के कारण स्मृतियों के प्रभाव से जैनाचार को नया मोड़ दिया है ।
जिनसेन मूलसंघ के पंचस्तूपान्वय के आचार्य थे। इनके गुरु का नाम वीरसेन था और दादागुरु का नाम आर्यनन्दि । वीरसेन के एक गुरुभाई जयसेन थे। जिनसेन ने अपने आदिपुराण में इनका भी स्मरण किया है। जिनसेन के सधर्मी या सतीर्थ दशरथ मुनि थे। जिनसेन और दशरथ के शिष्य गुणभद्र हुए जिन्होंने महापुराण के शेषांश और उत्तरपुर,ण की रचना की।
अपने साहित्यिक जीवन में जिनसेन का तीन स्थानों से सम्बन्ध था-चित्रकूट, बंकापुर और वाटग्राम । चित्रकूट में एलाचार्य का निवास था । जिनसे इनके गुरु वीरसेन ने सिद्धान्त ग्रन्थ पढ़े थे। चित्रकूट वर्तमान चित्तौड़ है। वाटग्राम में रहकर इनके गुरु ने धवला टीका लिखी थी। वाटग्राम, वटपद्र नामों का विद्वानों ने बड़ौदा के साथ साम्य स्थापित किया है। बंकापुर में रहकर जिनसेन
और गुणभद्र ने महापुराण की रचना की थी। तत्कालीन राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष ( सन् ८१५-८७७ ई० ) जिनसेन का बड़ा भक्त था। उस समय अमोघवर्ष का राज्य केरल से लेकर गुजरात, मालवा और चित्रकूट तक फैला हुआ था। जिनसेन का सम्बन्ध चित्रकूट आदि के साथ होने से तथा अमोघवर्ष द्वारा सम्मानित होने से उनके जन्म-स्थान का अनुमान महाराष्ट्र और कर्णाटक के सीमावर्ती प्रदेश में किया जा सकता है।
१. उत्तरपुराण, प्रशस्ति, पद्य -२०. २. जैन साहित्य और इतिहास (पं० नाथूराम प्रेमी), पृ० १२७-१५४,
महापुराण, प्रस्तावना, पृ. ३१-३२. ३. उत्तरपुराण, प्रशस्ति, पद्य ९.
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