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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रसयोजना की दृष्टि से इसमें शृङ्गार, करुण, वीर, रौद्र एवं शान्तरस के प्रमुख रूप से दर्शन होते हैं। मरुदेवी-नाभिराय, श्रीमती-वज्रजंघ, जय कुमारसुलोचना आदि के प्रसंग में संयोग-शृङ्गार का साङ्गोपाङ्ग चित्रण किया गया है । इसी तरह ललितांग, श्रीमती-वज्रजंघ के प्रसंग में वियोग-शृङ्गार का वर्णन हुआ है। शान्तरस तो इस पुराण का प्रधान रस है। भरत-बाहुबलि और जयकुमार और अर्ककीर्ति के प्रसंग में वीररस का भी प्रतिपादन हुआ है।
इस काव्य में भाव और भाषा को सजाने के लिए अलंकारों की योजना बड़ी चातुरी से की गयी है । अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, परिसंख्या, अर्थान्तरन्यास, काव्यलिंग, व्यतिरेक आदि का प्रचुर मात्रा में प्रयोग
हुआ है।
जहाँ-तहाँ कवि ने चित्रकाव्य तथा यमकादि शब्दालंकारों का प्रचुर प्रयोग किया है। भाषा तो प्रांजल है ही, उसे व्यावहारिक बनाने के लिये अनेक सुभाषितों से विभूषित किया गया है। यह महाकाव्य अपने कल्पना-प्रकर्ष, चित्रणप्राचुर्य, पद्य-रचना की धारावाहिकता आदि गुणों के कारण अनेक विद्वानों द्वारा प्रशंसित हुआ है। ___ आदिपुराण की रचना अधिकांशतः अनुष्टुभ छन्द में हुई है, पर पर्वान्त में कई छन्दों का प्रयोग हुआ है। कई पर्यों में विविध छन्दों का प्रयोग देखने लायक है। इस दृष्टि से २८वाँ पर्व विशेष महत्व का है। कवि का मानों छन्दों पर पूर्ण आधिपत्य था। उसने ६७ विभिन्न छन्दों का प्रयोग इस काव्य में किया है।
इस कृति का पश्चात्वर्ती अनेक रचनाओं ने अनुकरण किया है।
इस महापुराण पर भट्टारक ललितकीर्ति द्वारा रचित संस्कृत टिप्पण मिलते हैं जो प्रकाश में आ गये हैं। ललितकीर्ति सम्भवतः १८ वीं-१९ वी के भट्टारक थे।
१. उत्तरपुराण को प्रस्तावना (भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी), पृष्ट ११-१३. २. भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित संस्करण में ये टिप्पण उपयोग में
लिये गये हैं पर खेद है कि सम्पादक ने उनका परिचय नहीं दिया। इस ग्रन्थ का पं० दौलतरामजी, पं० लालारामजी तथा पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य ने हिन्दी अनुवाद किया है।
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