________________
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
मषि, कृषि, वाणिज्य, सेवा और शिल्प इन छह आजीविकाओं का प्रतिपादन तथा क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वणों की स्थापना का वर्णन है ।
५६
सत्तरहवें में वैराग्य, दीक्षा, अठारहवें में ६ माह की तपस्या, उन्नीसवें में धरणेन्द्र द्वारा नमि, विनमि के लिए विजयार्ध की नगरियों का प्रदान, बीसवें में तपश्चरण के बाद इक्षुरस आहार ग्रहण वर्णित है ।
इक्कीसवें पर्व में ध्यान का, और बाईस से लेकर पच्चीस तक केवल ज्ञान प्राप्ति, समवसरण, पूजा-स्तुति आदि का वर्णन है ।
छब्बीसवें से लेकर अड़तीसवें तक १३ पर्वों में भरत चक्रवर्ती की चक्ररत्नप्राप्ति से लेकर दिग्विजय तथा नगर प्रवेश के पूर्व भरत बाहुबलि युद्ध, बाहुबलि का वैराग्य एवं दीक्षा तथा भरत द्वारा ब्राह्मण वर्ण की स्थापना का वर्णन किया गया है ।
उनतालीस से लेकर इकतालीस तक तीन पर्वो में विभिन्न प्रकार की क्रियाओं और संस्कारों का वर्णन है । तैंतालीस से लेकर सैंतालीस तक पाँच पर्वों में जयकुमार और सुलोचना की रोचक कथा दी गई है और सैंतालीस के अन्त में यकुमार का वैराग्य, दीक्षा, गणधर पद प्राप्ति तथा भरत की दीक्षा और केवलज्ञान प्राप्ति और ऋषभदेव की कैलास पर्वत पर निर्वाण प्राप्ति की कथा दी गई है ।
जिनसेन ने अपनी कृति को 'पुराण' और 'महाकाव्य' दोनों नाम से कहा है । वास्तव में यह न तो ब्राह्मणों के विष्णुपुराण आदि जैसा पुराण है और न शिशुपालवधादि के समान महाकाव्य । यह महाकाव्य के बाह्य लक्षणों से सम्पन्न एक पौराणिक महाकाव्य है । आचार्य ने पुराण और महाकाव्य दोनों की परिभाषा को परिमार्जित करते हुए लिखा हैं :- जिसमें क्षेत्र, काल, तीर्थ, सत्पुरुष और उनकी चेष्टाओं का वर्णन हो, ब्रह पुराण है । इस प्रकार के पुराण में लोक, देश, पुर, राज्य, तीर्थ, दान-तप, गति और फल इन आठ बातों का वर्णन होना चाहिये ।' पुराण का अर्थ है 'पुरातनं पुराणं' - अर्थात् प्राचीन होने से पुराण कहा जाता है । पुराण के दो भेद हैं- 'पुराण' और 'महापुराण' । जिसमें एक महापुरुष के चरित का वर्णन हो, वह 'पुराण' है और जिसमें तिरसठ शलाका
१. पर्व १-२१-२५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org