________________
पौराणिक महाकाव्य
भी कहलाता है। पर्यों की रचना अनुष्टुभ् छन्दों में की गई है पर पर्वान्त में छन्द परिवर्तन किये गये हैं। प्रत्येक पर्व का प्रारम्भ तीर्थकर की स्तुति से होता है। तृतीय पर्व से प्रारंभ कर ऋषभ के क्रम से चलकर पच्चीसवें पर्व में पाश्व की स्तुति की गई तथा प्रथम में वृषभादि चौबीस तीर्थंकरों की और द्वितीय में महावीर की स्तुति की गई है । ग्रन्थरचना सरस, सरल संस्कृत में है। ___ग्रन्थकर्ता और रचनाकाल-प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता भट्टारक शुभचन्द्र हैं। ये भट्टारक विजयकीर्ति के शिष्य और ज्ञानभूषण के प्रशिष्य थे। इनके शिष्य श्रीपाल वर्णी थे। इनकी सहायता से भट्टारक शुभचन्द्र ने वाग्वर ( वागड) प्रान्त के अन्तर्गत (सागवाड़ा) नगर में वि० सं० १६०८ भाद्रपद द्वितीया के दिन इस पाण्डवपुराण की रचना की है। पच्चीसवें पर्व के अन्त में एक कविप्रशस्ति दी गई है। उसमें गुरुपरम्परा का परिचय दिया गया है और साथ में उनके द्वारा रचित २५-२६ ग्रन्थों की सूची ।'
भट्टारक शुभचन्द्र बड़े ही विद्वान् थे। त्रिविधविद्याधर (शब्दागम, युक्त्यागम और परमागम के ज्ञाता) और षटभाषाकविचक्रवर्ती-ये उनकी उपाधियाँ थीं।
इनके द्वारा रचित काव्यग्रन्थ-चन्द्रप्रभचरित, पद्मनाभचरित, जीवन्धरचरित, चन्दनाकथा, नन्दीश्वरकथा हैं तथा अन्य पूजा-विधान, प्रतिष्ठा आदि के ग्रन्थ हैं।
पाण्डवपुराण-इस पौराणिक काव्य में १८ सर्ग हैं।
रचयिता एवं रचनाकाल-इसके रचयिता भट्टा. वादिचन्द्र थे जो कि मूलसंघ के भट्टारक ज्ञानभूषण के प्रशिष्य और प्रभाचन्द्र के शिष्य थे। इनकी गद्दी गुजरात में ही कहीं पर थी। इन्होंने कई ग्रन्थ लिखे हैं यथा पार्श्वपुराण, ज्ञानसूर्योदयनाटक, पवनदूत, श्रीपालआख्यान (गुजराती-हिन्दी), यशोधरचरित्र, सुलोचनाचरित्र, होलिकाचरित्र और अम्बिका-कथा ।
पाण्डवपुराण की रचना सं० १६५४ में नोधकनगर में हुई थी।
1. जैन साहित्य और इतिहास, पृ०, ३८३-३८४. २. जयपुर के तेरहपंथी बड़े मन्दिर में इस ग्रन्थ की एक प्रति है। जि० २०
को०, पृ० २४३; जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३८८.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org