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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अनुप्रास, यमक तथा वीप्सा का प्रयोग बहुत हुआ है । अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा एवं रूपक अलंकारों का यथेष्ट प्रयोग दर्शनीय है।
इस काव्य में कवि ने अपने युग का समाज-चित्रण दिया है। इसमें उस युग के अनेक रीति-रिवाज, विवाह-संस्कार तथा प्रचलित अन्धविश्वासों की अच्छी झाँकी मिलती है । पाण्डवचरित एक धार्मिक काव्य भी है। इसमें स्थल स्थल पर धार्मिक उपदेश की योजना की गई है जिसमें दया, दान, शील, तप तथा संसार की अनित्यता प्रतिपादित है । ___ रचयिता एवं रचना-काल-पाण्डवचरित में दी गई प्रशस्ति से कवि का विशेष परिचय नहीं मिलता। उससे केवल इतना ज्ञात होता है कि पाण्डवचरित के रचयिता देवप्रभसूरि मलधारी गच्छ के थे। उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना हर्षपुरीय गच्छ के हेमचन्द्रसूरि-विजयसूरि-चन्द्रसूरि-मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य देवानन्दसूरि के अनुरोध से की थी। प्रशस्ति में रचना-काल नहीं दिया गया पर देवानन्दसूरि, जिनके अनुरोध पर यह ग्रन्थ रचा गया था', प्रमुख ग्रन्थ संशोधक प्रद्युम्नसूरि के गुरु कनकप्रभसूरि के गुरु थे। प्रद्युम्नसूरि का साहित्यिक काल सं० १३१५ से सं० १३४० तक २५ वर्ष का माना जा सकता है क्योंकि उन्होंने सं १३२२ में श्रेयांसनाथचरित (मानतुंगसूरिकृत ) तथा उसी वर्ष मुनिदेवकृत शान्तिनाथचरित का संशोधन तथा सं० १३२४ में अपने काव्य समरादित्यचरित की रचना तथा सं० १३३४ में प्रभाचन्द्रकृत प्रभावकचरित का संशोधन किया था। यदि इस काल से पहले २५ वर्ष तक प्रद्युम्नसूरि के गुरु कनकप्रभ का साहित्यिक काल और उनसे २५ वर्ष पूर्व तक कनकप्रभ के गुरु देवानन्द का साहित्यिक काल माना जाय तो कनकप्रभ का साहित्यिक जीवन सं० १२९० के पश्चात् और देवानन्द का साहित्यिक जीवन सं० १२६५ के पश्चात् मानना चाहिये। इस अनुमान से कि देवानन्दसूरि का साहित्यिक काल सं० १२६५ के लगभग बैठता है देवप्रभसूरि की कृति पाण्डवचरित का रचनाकाल सं० १२६५ के कुछ काल बाद सिद्ध होना चाहिये। दूसरे अनुमान से भी हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं। वह है देवप्रभसूरि के शिष्य नरचन्द्रसूरि का समय | नरचन्द्रसूरि भी पाण्डवचरित के संशोधकों में एक थे। इन्हीं नरचन्द्रसूरि ने उदयप्रभसूरिकृत धर्माभ्युदय महाकाव्य (सं० १२७७-१२९० ) का संशोधन भी किया था। इससे भी उसी काल के आस-पास पाण्डवचरित का
१. पाण्डवचरित, प्रशस्ति, पद्य८-६. २. पाण्डवचरित, प्रशस्ति, पद्य १०.११.
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