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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इस नाटक में जयसिंह को निर्णायक की भूमिका अदा करते दिखाया गया है।
इस नाटक की घटना को कुछ विद्वानों ने प्रभावकचरित और प्रबंधचिन्तामणि में दिये वर्णनों के अनुसार ऐतिहासिक माना है पर इसकी ऐतिहासिकता में सबसे बड़ी बाधक बात यह है कि इसमें वादीरूप से चित्रित दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र की पहचान अब तक नहीं हो सकी है। वादिदेवसूरि के समय वि० सं० ११४३-१२२६ के बीच दिगम्बर सम्प्रदाय में इस नाम के तथाकथित चतुराशीति-विवादविजयी, वादीन्द्र कुमदचन्द्र का नाम नहीं मिलता है।
नाटक की कथावस्तु--घटना भले ही वास्तविक न हो पर यह नाटक तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक और राजकीय स्थिति की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि प्रस्तुत करने में सफल है । इससे उस समय की धार्मिक स्पर्धा, धर्माचार्यो की पारस्परिक असहिष्णुता, राजा का स्वदेशज के प्रति पक्षपात और उसकी विजय देखने की उत्कण्ठा आदि मानव-स्वभाव पर आश्रित बाते हैं।
इस नाटक का अभिनय किस प्रसंग में हुआ है, यह सूचित नहीं किया गया है पर यह कुतूहलवर्धक अच्छी साहित्यिक कृति है।
रचयिता एवं रचनाकाल-इस नाटक के लेखक धर्कट कुल के सेठ धनदेव के पौत्र तथा पद्मचन्द्र के पुत्र कवि यशश्चन्द्र हैं। उन्होंने सपादलच देश में किसी शाकम्भरी ( वर्तमान सांभर ) राजा मे अभ्युन्नति प्राप्त की थी। उनके पितामह शाकंभरी नरेश के राजसेठ थे।
यशश्चन्द्र ने अनेक प्रबंधों की रचना की थो, ऐसा निम्न पद्य से ज्ञात होता है :
कर्ताऽनेकप्रबंधानामत्र प्रकरणे कविः।
आनन्दकाव्यमुद्रासु यशश्चन्द्र इति श्रुतः॥ इनका 'राजीमतीप्रबोध' नामक एक अन्य नाटक मिलता है ।' शेष रचनाओं का पता नहीं है।
१. जिनरत्नकोश, पृ० ३३..
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