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पौराणिक महाकाव्य
४७ पहुँचते हैं कि वीर-निर्वाण के बाद से विक्रम सं० ८४० तक की अविच्छिन्न गुरुपरम्परा इस ग्रन्थ में सुरक्षित है जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलती और इस दृष्टि से यह प्रशस्ति महत्त्वपूर्ण है।
ज्ञात होता है कि पुन्नाटसंघ की परम्परा वर्धमानपुर (वढ़वाण-काठियावाड़ ) में जिनसेन के बाद लगभग १५० वर्षों तक चलती रही। इसका प्रमाण हमें हरिषेण के 'कथाकोश' से मिलता है । हरिषेण भी पुन्नाटसंघ के थे और उनके कथाकोश की रचना जिनसेन के हरिवंश रचने के १४८ वर्ष बाद अर्थात् वि० सं० ९८९ ( शक सं० ८५३ ) में हुई थी। हरिषेण ने अपने गुरु भीमसेन, उनके गुरु हरिषेण और उनके गुरु मौनिभट्टारक तक का उल्लेख किया है। यदि एक-एक गुरु का समय पचीस-तीस वर्ष गिना जाय तो इस अनुमान से हरिवंश कर्ता जिनसेन, मौनिभट्टारक के गुरु के गुरु हो सकते हैं या एकाध पीढ़ी
और पहले के । यदि जिनसेन और मौनिभट्टारक के बीच के एक-दो आचार्यों का नाम और कहीं से मालूम हो जाय तो फिर इन ग्रन्थों से वीर नि० से श० सं० ८५३ तक की अर्थात् १४५८ वर्ष की एक अविच्छिन्न गुरुपरम्परा तैयार हो सकती है। ___ पुन्नाटसंघ का उल्लेख इन दो ग्रन्थों के अतिरिक्त अभी तक अन्यत्र नहीं मिला है। विद्वानों का अनुमान है कि पुन्नाट (कर्नाटक) से बाहर जाने पर ही यह संघ पुन्नाटसंघ कहलाया जिस तरह कि आज कल जब कोई एक स्थान को छोड़ कर दूसरे स्थान में जाकर रहता है तब वह अपने पूर्व स्थानवाला कहलाने लगता है।
इस ग्रन्थ की रचना नन्नराजवसति पार्श्वनाथ मन्दिर में बैठकर की गई थी।
यद्यपि ग्रन्थकर्ता दिग० सम्प्रदाय के थे फिर भी हरिवंश के अन्तिम सर्ग में भगवान् महावीर के विवाह की बात लिखी है जो दिग० सम्प्रदाय के अन्य ग्रन्थ में नहीं देखी जाती। लगता है यह मान्यता श्वेता० या यापनीय सम्प्रदाय के किसी ग्रन्थ से ली गई है। १. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १२०-१२१. २. हरिवंशपु०, सर्ग ६६.५२-५५. १. हरि० पु०, सर्ग ६६.८ : यशोदयायां सुतया यशोदया पवित्रया वीर
विवाहमंगलं।
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