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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास मोक्ष का भी लाभ मिलेगा। अन्त में ग्रन्थकार ने हरिवंश को समीहित सिद्धि के लिए श्रीपर्वत कहा है। यह श्रीपर्वत आन्ध्रदेश का नागार्जुनीकोण्डा है जो जिनसेन के समय भी ऋद्धि-सिद्धि के लिए देश-प्रसिद्ध केन्द्र माना जाता था।
ग्रन्थकार-परिचय और रचनाकाल-इस ग्रन्थ की समाप्ति पर ६६३ सर्ग में एक महत्त्वपूर्ण प्रशस्ति दी गई है जिससे ज्ञात होता है कि इसके रचयिता पुन्नाटसंघीय जिनसेन हैं। इससे स्पष्ट है कि ये महापुराण (आदिपुराण) के रचयिता मूलसंघीय सेनान्वयी जिनसेन से भिन्न थे। इनके गुरु का नाम कीर्तिण
और दादागुरु का नाम जिनसेन था जबकि दूसरे जिनसेन के गुरु का नाम वीरसेन और दादागुरु का आर्यनन्दि था।
पुन्नाट कर्नाटक का प्राचीन नाम है और इस देश से निर्गत मुनि संघ का नाम पुन्नाटसंघ पड़ा। हरिवंश के छासठवें सर्ग में महावीर से लेकर लोहाचार्य अर्थात् वी. नि. ६८३ वर्ष के बाद तक की आचार्य परम्परा दी गई है जो श्रतावतार आदि अन्य ग्रन्थों में मिलती है। इसके बाद जो आचार्य परम्परा दी गई है उसमें पुन्नाटसंघ के पूर्ववर्ती अनेक आचार्यों के नाम दिये गये हैं यथा-विनयधर, श्रुतिगुप्त, ऋषिगुप्त, शिवगुप्त (जिन्होंने अपने गुणों से अर्ह
बलिपद प्राप्त किया), मन्दरार्य, मित्रवीर, बलदेव, बलमित्र, सिंहबल, वीरवित् , पद्मसेन, व्याघ्रहस्ति, नागहस्ति, जितदण्ड, नन्दिषेण, दीपसेन, धरसेन, धर्मसेन, सिंहसेन, नन्दिषेण, ईश्वरसेन, अभयसेन, सिद्धसेन, अभयसेन, भीमसेन, जिनसेन, शान्तिषेण, जयसेन, अमितसेन (पुन्नाटसंघ के अगुआ और सौ वर्ष तक जीनेवाले), इनके बड़े गुरुभाई कीर्तिषेण और उनके शिष्य जिनसेन (ग्रन्थ कर्ता)।
इसमें अमितसेन को पुन्नाटसंघ का अग्रणी कहा गया है। इससे प्रतीत होता है कि वे ही पुन्नाटसंघ को छोड़ सबसे पहले उत्तर की तरफ बढ़े होंगे और उनसे पूर्ववर्ती जयसेन गुरु तक यह संघ पुन्नाटदेश में ही विचरण करता रहा होगा-अर्थात् जिनसेन से ५०-६० वर्ष पहले ही काठियावाड़ में इस संघ का प्रवेश हुआ होगा। जिनसेन ने इस ग्रन्थ की रचना शक सं० ७०५ (सन् ७८३) अर्थात् वि० सं० ८४० में की थी। उपर्युक्त गुर्वावली से हम इस निष्कर्ष पर
१. सर्ग ६६.४६. २. सर्ग ६६.५४ : दृष्टोऽयं हरिवंशपुण्यचरितः श्रीपर्वतः सर्वतो। १. सर्ग ६६.२२-३३. ५. सर्ग ६६, पद्य ५२ : शाकेष्वन्दशतेषु सप्तसु दिशं पंचोत्तरेषत्तरां"।
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