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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ___विक्ष-राजा-मोहराज, रानी-राज्यश्री, सहेली-गैद्रता, कुमारपाल की रानी-कीर्तिमंजरी और साला-प्रताप ।
__इस नाटक में अनेक गुण हैं । सर्वप्रथम यह सरल संस्कृत में लिखा गया है । इसमें इस प्रकार की कृत्रिमता नहीं है जो कि आडम्बरपूर्ण अन्य नाटकों को दूषित कर देती है। इस ग्रन्थ से हमें कुमारपालकालीन जैनधर्म की विविध गतिविधियों के विशद चित्रण मिल जाते हैं जिनका समर्थन गुजरात के शिलालेखों एवं अन्य उपादानों से होता है। जिनमण्डनगणि ने अपने 'कुमारपालप्रबंध' (सं० १४९२) में इस रूपक का वस्तुसंक्षेप दिया है और बताया है कि कृपासुन्दरी से कुमारपाल का विवाह सं० १२१६ में हुआ था अर्थात् उस दिन कुमारपाल ने प्रकट रूप में जैनधर्म स्वीकारा था। इस नाटक में जुए के. अनेक प्रकार तथा प्राणिवध पर जोर देने वाले अनेक मतों का उल्लेख मिलता है । इसकी प्राकृतें हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरण के नियमों से प्रभावित हैं। इसमें मागधी नथा जैन महाराष्ट्री का प्रयोग हुआ है।
रचयिता एवं रचनाकाल-इस नाटक के रचयिता ने अपना परिचय सूत्रधार के मुख से दिलाया है। तदनुसार उसका नाम यशःपाल कवि है। वह मोढवंश ( मोढवणिक ) के मंत्री धनदेव और माता रुक्मिणी का पुत्र था। वह चक्रवर्ती अजयदेव के चरणसरोज का हंस था। चक्रवर्ती अजयदेव चौलुक्य अजयपाल ही है जो कुमारपाल का उत्तराधिकारी था। इस अजयदेव ने सन् १२२९-१२३२ तक राज्य किया था।
नाटक के अन्त में 'मंत्रियशःपालविरचितं मोहराजपराजयो नाम नाटक' लिखा है। संभव है कि यशपाल उक्त राजा का मंत्री या शासक रहा हो ! इस नाटक की रचना का काल उक्त नृप का राज्यकाल माना जा सकता है ।
१. कृपासुन्दर्याः सं० १२१६ मार्गसुदि द्वितीया दिने पाणिं जग्राह श्रीकुमारपाल
महीपालः श्रीमहदेवतासमक्षम् । २. श्रीमोढवंशावतंसेन श्रीमजयदेवचक्रवर्तिचरणराजीवराजहंसेन मंत्रिधनदेव
तनुजन्मना रुक्मिणीकुक्षिलालितेन 'परमाईतेन यशःपालकविना विनिर्मितं मोहराजपराजयो नाम नाटकम् ।
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