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ललित वाङ्मय
सोमप्रभाचार्य ने इनका यशोगान सुमतिनाथचरित्र तथा कुमारपालप्रतिबोध की अन्तिम प्रशस्तियों में किया है। गुर्जरनरेश सिद्धराज जयसिंह के ये बालमित्र थे ।
मोहराजपराजय :
इस नाटक के शीर्षक का अर्थ है मोह याने अज्ञान पर विजय |
यह पांच अङ्कों में विभक्त है ।
इसमें गुजरात के चौलुक्य नरेश राजा कुमारपाल द्वारा आचार्य हेमचन्द्र के उपदेश से जैनधर्म स्वीकारना, प्राणिहिंसा को रोकना तथा अदत्त मृतघनापहरण का त्याग करने आदि का चित्रण है । यह नाटक प्राचीन काल के जैन रूपक ( Allegory ) का अच्छा नमूना है। विषयवस्तु और अभिनय की दृष्टि से यह नाटक मध्ययुगीन यूरोप के ईसाई नाटकों के सदृश लगता है । संस्कृत साहित्य में ऐसे और भी नाटक हैं जिनमें उल्लेखनीय चन्देल राजा कीर्तिवर्मा के राज्य ( १०६५ ई० ) में कृष्णमिश्र द्वारा रचा गया 'प्रबोधचन्द्रोदय' है जो कि इस नाटक से सौ वर्ष पहले रचा गया था ।
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ऐसा ज्ञात होता है कि यह नाटक अजयपाल के राज्यकाल में (सन् १९७४७७ ) में लिखा गया था और थारापद्र ( आधुनिक थराद, बनासकांठा जिला ) में बनाये कुमारपाल के मन्दिर कुमारविहार में महावीर की रथयात्रा के महोत्सव के समय खेला गया था जहां कि नाटककार या तो शासक था या वहां का केवल निवासी ।
इस नाटक में राजा, विदूषक और आचार्य हेमचन्द्र को छोड़कर शेष सभी पात्र भावात्मक - -- पुण्यात्मक और पापात्मक वस्तुओं के रूपक हैं ।
पक्ष-विपक्ष के पात्रों के नाम इस प्रकार हैं :
पक्ष - राजा - विवेकचन्द्र, दूत - ज्ञानदर्पण, ज्योतिषी-गुरूपदेश, मंत्री- पुण्यकेतु, सिपाही - धर्मकुञ्जर, रानी - शान्ति और पुत्री - कृपासुन्दरी, मौसी-शान्तिसुन्दरी, कूप - सदागम, नदी - धर्मचिन्ता, उद्यान- धर्म, वृक्ष-दम, घट-ध्यान, सखी - सोमता, कवच - योगशास्त्र, गुटिका-त्रीतरागस्तुति ।
१. गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज, संख्या ९, बड़ौदा १९१८; विस्तारभय से यहां इसका सार देना सम्भव नहीं है ।
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