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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
हैं । इसे हम एक अच्छा पादपूर्तिकाव्य कह सकते हैं । प्रस्तुत काव्य में जैन धर्मविषयक कोई सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं है ।
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रचयिता एवं रचनाकाल - इसके रचयिता प्रसिद्ध जिनसेनाचार्य हैं जिन्होंने महापुराण ( आदिपुराण ) की रचना की थी । उक्त प्रसंग में उनका विस्तृत परिचय दिया गया है । पाश्वभ्युदय का उल्लेख द्वितीय जिनसेन ने हरिवंश - पुराण ( शक सं० ७०५, सन् ७८३ ई० ) में किया है, अतः यह काव्य उससे पूर्व अवश्य रचा गया था ।
इस पर योगिराट् पण्डिताचार्यकृत टीका ( सन् १४३२ ) मिलती है जिसका नाम सुबोधिका है । उसमें उक्त काव्य की बहुत प्रशंसा की गई है ।
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मिदूत :
इसमें' १२६ पद्य हैं जिनकी रचना में मेवदूत काव्य के अन्तिम चरण की समस्यापूर्ति की गई है। इसमें २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ और राजीमती या राजुल के विरह-प्रसंग का वर्णन है । वस्तुतः यह मेघदूत पर आवृत एक मौलिक काव्य है । इसके नामकरण का यह अर्थ नहीं कि इसमें नेमिनाथ ने दूत का काम किया है, बल्कि आराधक नायक नेमि के लक्ष्य से दूत ( वृद्ध ब्राह्मण ) भेजने के कारण इसका नेमिदूत नामकरण हुआ है। मेघदूत में दूत नायक की ओर से भेजा गया है तो नेमिदूत में नायिका की ओर से ।
घटना-प्रसंग यह है कि नेमिनाथ अपने विवाह भोज के लिए बाड़े में एकत्र किये गये पशुओं का करुणक्रन्दन सुनकर विरक्त हो रैवतक पर्वत पर योगी बन जाते हैं । दुलहिन राजीमती एक वृद्ध ब्राह्मण को दूत बनाकर उन्हें मनाने के लिए भेजती है । यहां द्वारिका से रैवतक पर्वत तक का सुन्दर वर्णन किया गया है । अन्त में राजीमती का विरह शमभाव में परिणत हो जाता है ।
सखीसहित राजीमती के नेमिनाथ को गृही बनाने के प्रयत्नों का वर्णन ही संक्षेप में इस काव्य की विषयवस्तु है ।
यह काव्य अपनी भाषा, भाव और पद्य रचना में तथा काव्यगुणों से बड़ा ही सुन्दर बन गया है । कवि ने विरही जनों को यथार्थ दुःख अवस्था का जो वर्णन किया है उससे मालूम होता है कि वे ऐसे अनुभवों के धनी थे ।
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कोटा प्रकाशन, वि०० २००५: काव्यमाला. द्वितीय गुच्छक, प्र० ८५-१०४.
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