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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
उद्यत था । नरयुगल के रूप में नवदीक्षित जैन यति अभयरुचि और क्षुल्लिका अभयमति वहाँ लाये जाते हैं। राजा में उनके प्रति स्नेहभाव जागता है। (भाग्य से वे दोनों उसकी बहन के पुत्र-पुत्री थे, जिन्हें वह तत्काल पहचान न सका था) । वह उन दोनों बालयतियों को सिंहासन देता है। दोनों एक-एक कर उस राजा की प्रशंसा कर उसे जैनधर्म की ओर झुका लेते हैं ( १ आश्वास ) । उनमें से बालकयति अभयरुचि मारिदत्त नृप को अपने पूर्वजन्मों का वृत्तान्त कहता है और यशोधर नृप की कथा सुनाता है। यह कथा पाँचवे आश्वास में समाप्त होती है । इसके बाद हिंसारत उस राजा में वह अहिंसा-धर्म की ज्ञानज्योति जगाता है और ६.८ तीन आश्वासों में उपदेश के रूप में रोचक शैली में श्रावकाचार का वर्णन किया गया है । उक्त अंश को 'उपासकाध्ययन" नाम से भी कहा जाता है । चम्पू के अन्त में दिखाया गया है कि राजा मारिदत्त और उसकी कुलदेवी चण्डमारि जैनधर्म में दीक्षित हो गये
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उक्त यशोधर की कथा का स्रात पूर्ववर्ती रचना प्रभंजनकृत यशोधरचरित और हरिभद्रसूरिकृत समराइच्चकहा के चतुर्थ भव में मिलता है, परन्तु कवि ने उसमें कई परिवर्तन किये हैं । हरिभद्र की रचना में मारिदत्त और - युगल मनुष्यों की बलि की कथा नहीं दी तथा दोनों में प्रधान पात्रों के नामों में भी अन्तर है । उक्त चम्पू के लेखक ने कथा को साधन बना कर ब्राह्मणधर्म पर आक्षेप किये हैं जबकि हरिभद्र के कथानक में इनका एकदम अभाव है ।
रचयिता एवं रचनाकाल - इसके रचयिता आचार्य सोमदेवसूरि हैं जो देवसंघ के यशोदेव के शिष्य नेमिदेव के शिष्य थे। ये बहुश्रुत विद्वान् थे, यह उनका उक्त ग्रन्थ पढ़ने से ज्ञात होता है । इन्होंने न्याय और राजनीतिविषयक कई ग्रन्थ लिखे थे पर उक्त चम्पू के अतिरिक्त दूसरा प्रसिद्ध ग्रन्थ नीतिवाक्या
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१. इस कथा पर लिखे गये विस्तृत साहित्य का हम पूर्व में परिचय दे आये हैं । २. यह अंश उक्त नाम से पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा सम्पादित एवं अनूदित तथा संस्कृत टीका सहित भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी से १९४४ में प्रकाशित हुआ है । उसकी भूमिका पठनीय है ।
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३. इनके विशेष परिचय के लिए देखें – पं० नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १९० आदि उपासकाध्ययन ( भारतीय ज्ञानपीठ ), प्रस्तावना, पृ० १३-२६; यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० २७- ४१; प्रो० कृष्णकान्त हान्दिकी, यशस्तिलक एण्ड इण्डियन कल्चर, प्रथम अध्याय.
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