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ललित वाङ्मय
५३९ यह गद्यकाव्य ऐतिहासिक महत्त्व का भी है। इसके प्रारम्भ में वारा के परमार राजाओं की वैरिसिंह से लेकर भोज तक वंशावली दी गयी है। कवि स्वयं परमार राजा मुञ्ज की सभा का सदस्य था तथा उक्त राजा द्वारा सरस्वती पद से विभूषित किया गया था ।
_रचयिता एवं रचनाकाल-इसके रचयिता का नाम धनपाल है। कवि के पिता का नाम सर्वदेव और पितामह का नाम देवर्षि था। पितामह मध्यदेश के सांकाश्य नामक ग्राम ( वर्तमान फर्रुखाबाद जिले में 'संकिस' नामक ग्राम) के मूल निवासी ब्राह्मण थे और उजयिनी में आ बसे थे। धनपाल का शोभन नामक एक अनुज और सुन्दरी नामक एक बहिन थी। कवि वेद-वेदांग आदि के पण्डित थे । कहा जाता है कि धनपाल के अनुज शोभन जैन मुनि हो गये थे और अपने अनुज से प्रभावित होकर कवि ने जैनधर्म ग्रहण कर लिया। धनपाल के सम्बन्ध में प्रभावकचरित के 'महेन्द्रसूरिप्रबंध', प्रबंधचिन्तामणि के 'धनपालप्रबंध', रत्नमन्दिरगणि के 'भोजप्रबंध' आदि में कई आख्यान दिये गये हैं। धनपाल का समय मुंज और भोज के समकालीन होने से विक्रम की ११वीं शती है।
इनकी अन्य रचनाओं में पाइयलच्छोनाममाला, ऋषभपंचाशिका और वीरथुइ मिलती हैं। कवि ने पाइयलच्छीनाममाला की रचना वि० सं० १०२९ में धारा नगरी में अपनी छोटी बहिन सुन्दरी के लिए की थी। धनपाल ने तिलकमंजरी को रचना राजा भोज के जिनागमोक्त कथा सुनने के कुतूहल को मिटाने के लिए की है।
१. पद्य ३८-५१. २. पद्य ५३ : श्रीमुंजेन सरस्वतीति सदसि क्षोणिभृता व्याहृतः । ३. विक्कमकालस्स गए अउणत्तीसुत्तरे सहस्सम्मि......
कज्जे कणिहबहिणीए 'सुन्दरी' नाम धिज्जाए। ४. निःशेष वाङ्मयविदोऽपि जिनागमोक्ताः,
श्रोतुं कथाः समुपजातकुतूहलस्य । तस्यावदातचरितस्य विनोदहेतोः, राज्ञः स्फुटाद्भुतरसा रचिता कथेयम् ॥
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