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________________ ५२७ ललित वाङ्मय प्रमेयकमलमार्तण्ड में इस काव्य का उल्लेख किया है। वादिराज ने अपने पार्श्वनाथचरित ( सन् १०२५) में द्विसंधान की प्रशंसा में लिखा है। अनेकभेदसन्धानाः खनन्तो हृदये मुहुः । बाणा धनञ्जयोन्मुक्ताः कर्णस्येव प्रियाः कथम् ।। अर्थात् अनेक (दो) प्रकार के सन्धान ( निशाना और अर्थ ) वाले और हृदय में बारंबार चुभने वाले धनंजय (अर्जुन और धनंजय कवि ) के बाण (और शब्द ) कर्ण को (कुन्तीपुत्र कर्ण और कानों को) प्रिय कैसे होंगे ? इसी तरह कन्नड कवि दुर्गसिंह ( सन् १०२५ के लगभग ) ने अपने ग्रन्थ पंचतंत्र में धनंजय और उनके राघवपाण्डवीय का स्मरण किया है। दूसरे कन्नड कवि नागवर्मा (सन् १०९० के लगभग) ने भी अपने ग्रन्थ 'छन्दोम्बुधि' में धनंजय का उल्लेख किया है। धनंजय और द्विसंधान को प्रशंसा में महाकवि राजशेखर ( सन् ९०० के लगभग) ने एक पद्य इस प्रकार लिखा है (इसका संग्रह जल्हण ( १२वीं सदी) ने अपनी 'सूक्तिमुक्तावलि' में किया है ): द्विसंधाने निपुणतां सतां चक्रे धनंजयः । यया जातं फलं तस्य सतां चक्रे धनञ्जयः॥ धनंजय ने द्विसंधान में जो निपुणता प्राप्त की उससे उन्हें सज्जनों के समूह में धन और जयरूप फल प्राप्त हुआ। यद्यपि धनंजय ने अपने किन्हीं ग्रन्थों में अपने समय का कोई उल्लेख नहीं किया परन्तु उपर्युक्त उल्लेखों से उनके समय-निर्णय में अवश्य सहायता मिलती है। धनंजय की उत्तरावधि राजशेखर, भोज, प्रभाचन्द्र, वादिराज आदि के द्वारा किये उल्लेखों से १०वीं शताब्दी के पूर्व बैठती है क्योंकि उस शताब्दी तक वह पूर्ण ख्याति प्राप्त कर चुका था। उसकी उत्तरावधि को और सीमित करने के लिए एक और प्रमाण है। उसके अन्यतम ग्रन्थ 'अनेकार्थनाममाला' के एक पद्य का उद्धरण ९वीं शताब्दी के आचार्य वीरसेन (सन् ८१६ ) ने अपनी पवला टीका में दिया है। वह पद्य है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002099
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, Kavya, & Story
File Size11 MB
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