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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास हेतावेवं प्रकारादौ व्यवच्छेदे विपर्यये ।
प्रादुर्भावे समाप्तौ च इति शब्दः प्रकीर्तितः ।। इससे धनंजय का समय ९वीं शताब्दी के बाद नहीं हो सकता ।
पूर्वावधि के लिए धनंजय की नाममाला का उपर्युक्त पद्य 'प्रमाणमकलंकस्य' उद्धृत किया जा सकता है । इस पद्य के अकलंक का समय ७-८वीं शताब्दी है । अतः धनंजय उससे पूर्व नहीं हो सकते । संक्षेप में हम धनंजय को आठवीं के मध्य और सन् ८१६ के बीच कभी हुआ मान सकते हैं।' ___ कवि की अन्य कृतियों में उपलब्ध नाममाला अनेकार्थनाममाला नामक लघु एवं उपयोगी कोश तथा विषापहार स्तोत्र है। इनकी एक अन्य कृति यशोधरचरित थी। भहारक शानकीर्ति (वि०सं० १६५०) ने अपने यशोधरचरित में पूर्व के ७ यशोधरचरितों के कर्ताओं के नाम दिये हैं जिनमें धनंजय का भी है। सम्भव है ये धनंजय कोई दूसरे हो क्योंकि वि०सं० १६५० के पूर्व किसी अन्य लेखक ने इस महाकवि के यशोधरचरित का उल्लेख नहीं किया। उनकी अनुपम लेखनी से प्रसूत कृति का इस बोच इतने दिनों तक अशात रहना सम्भव न था।
दिसंधान अपने प्रकार का सर्वश्रेष्ठ और संभवतः उपलब्ध प्रथम काव्य है। इसके अनुकरण पर पीछे इस प्रकार की काव्य-परम्परा चल पड़ी। भुतकीर्ति विद्य (सन् ११००-११५०) का राघवपाण्डवीय, माधवमट्ट का राघवपाण्डवीय, संध्याकरनन्दि का रामचरित, हरिदत्तसूरि का राघवनैषधीय, चिदम्बरकृत राघवपाण्डवयादवीय आदि इसी परम्परा के काव्य हैं।
दिसंधान काव्य पर कुछ टोकाएं उपलब्ध हैं। उनमें एक पदकौमुदी है जिसके कर्ता विनयचन्द्र के शिष्य और पद्मनन्दि के शिष्य नेमिचन्द्र हैं। दूसरी राघवपाण्डवीयप्रकाशिका है जिसके कर्ता परवादिघरट्ट रामभट्ट के पुत्र कवि देवर है। इन दोनों का समय शात नहीं है।
१. धनंजय और द्विसंधान काव्य पर एक विस्तृत लेख ग० मा० ने• उपाध्ये ने
विश्वेश्वरानन्द इण्डोलॉजिकल जर्नल (मार्च-सित. १९७०, भा.
८,०१-२, पृ० १२५-१३५) में लिखा है। २. जिनरस्नकोश, पृ. १८५ भौर ३१९, जैन साहित्य मोर इविकास, पृ०
१.८ प्रभृति.
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